Ad
Search by Term. Or Use the code. Met a coordinator today? Confirm the Identity by badge# number here, look for Navpravartak Verified Badge tag on profile.
 Search
 Code
Searching...loading

Search Results, page of (About Results)

नमामि गंगे - बन्द करो निर्मलता का नाटक

Jan 28, 2018  16:26 Jul 11, 2021  00:00 Amit Kumar Yadav Amit Kumar Yadav 765

गंगा अब यह एक स्थापित तथ्य है कि यदि गंगाजल में वर्षों रखने के बाद भी खराब न होने का विशेष रासायनिक गुण है, तो इसकी वजह है इसमें पाई जाने वाली एक अनन्य रचना। इस रचना को हम सभी ‘बैक्टीरियोफेज’ के नाम से जानते हैं।  बैक्टीरियोफेज, हिमालय में जन्मा एक ऐसा विचित्र ढाँचा है कि जो न साँस लेता है, न भोजन करता है और न ही अपनी किसी प्रतिकृति का निर्माण करता है। बैक्टीरियोफेज, अपने मेजबान में घुसकर क्रिया करता है और उसकी यह नायाब मेजबान है, गंगा की सिल्ट। गंगा में मूल उत्कृष्ट किस्म की सिल्ट में बैक्टीरिया को नाश करने का खास गुण है। गंगा की सिल्ट का यह गुण भी खास है कि इसके कारण, गंगाजल में से कॉपर और क्रोमियम स्रावित होकर अलग हो जाते हैं। अब यदि गंगा की सिल्ट और बैक्टीरियोफेजेज को बाँधों अथवा बैराजों में बाँधकर रोक दिया जाये और उम्मीद की जाये कि आगे के प्रवाह में वर्षों खराब न होने वाला गुण बचा रहे, तो क्या यह सम्भव है? मछलियाँ, नदियों को निर्मल करने वाले प्रकृति प्रदत तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। धारा के विपरीत चलकर अंडे देने वाली माहसीर और हिल्सा जैसी खास मछलियों के मार्ग में क्रमशः चीला और फरक्का जैसे बाँध-बैराज खड़े करके हम अपेक्षा करें कि वे नदी निर्मलता के अपने कार्य को जारी रखेंगी; यह कैसे सम्भव है?

गंगोत्री की एक बूँद नहीं पहुँचती प्रयागराज

हैदराबाद स्थित ‘नीरी’ को पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध करने वाला सबसे अग्रणी शासकीय संस्थान माना जाता है। ‘नीरी’ द्वारा जुलाई, 2011 में जारी एक रिपोर्ट स्थापित करती है कि बैक्टीरियोफेज की कुल मात्रा का 95 प्रतिशत हिस्सा, टिहरी बाँध की झील में बैठी सिल्ट के साथ ही वहीं बैठ जाता है। मात्र 05 प्रतिशत बैक्टीरियोफेज ही टिहरी बाँध के आगे जा पाते हैं। सभी को मालूम है कि गंगा में ग्लेशियरों से आने वाले कुल जल की लगभग 90 प्रतिशत मात्रा, बैराज में बँधकर हरिद्वार से आगे नहीं जा पाती है। शेष 10 प्रतिशत को बिजनौर और नरोरा बैराजों से निकलने वाली नहरें पी जाती हैं। इस तरह गंगा मूल से आये जल, बैक्टीरियोफेज और सिल्ट की बड़ी मात्रा बाँध-बैराजों में फँसकर पीछे ही रह जाती है। प्रख्यात नदी वैज्ञानिक स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद दुखी हैं कि गंगोत्री से आई एक बूँद भी प्रयागराज (इलाहाबाद) तक नहीं पहुँचती। परिणामस्वरूप, प्रयागराज (इलाहाबाद) की गंगा में इसके जल का मौलिक मूल गुण विद्यमान नहीं होता।  यही कारण है कि प्रयागराज (इलाहाबाद) का गंगाजल, गर्मी आते-आते अजीब किस्म के कसैलेपन से भर उठता है। निस्सन्देह, इस कसैलेपन में हमारे मल, उद्योगों के अवजल, ठोस कचरे तथा कृषि रसायनों में उपस्थित विष का भी योगदान होता है; लेकिन सबसे बड़ी वजह तो गंगाजल को मौलिक गुण प्रदान करने वाले प्रवाह, सिल्ट और बैक्टीरियोफेज की अनुपस्थिति ही है।

अविरलता बिना, निर्मलता असम्भव

स्पष्ट है कि यदि गंगाजल के विशेष मौलिक गुण को बचाना है, तो गंगा उद्गम से निकले जल को सागर से गंगा के संगम की स्थली- गंगासागर तक पहुँचाना होगा; गंगा की त्रिआयामी अविरलता सुनिश्चित करनी होगी। त्रिआयामी अविरलता का मतलब है, गंगा प्रवाह और इसकी भूमि को लम्बाई, चौड़ाई और गहराई में अप्राकृतिक छेड़छाड़ से मुक्त रखना। इस त्रिआयामी अविरलता को सुनिश्चित किये बगैर, गंगा को निर्मल करने का हर प्रयास विफल होगा। यह जानते हुए भी बीते साढ़े तीन वर्षों में ‘नमामि गंगे’ के तहत इस दिशा में क्या कोई एक जमीनी प्रयास हुआ? उल्टे गंगा को इसके मूल में कैद करने की कारगुजारियों को हरी झंडी दी गई। नैनीताल स्थित उत्तराखण्ड हाईकोर्ट द्वारा गंगा-यमुना की इंसानी पहचान पर न्यायालयी ठप्पा लगाने से उम्मीद बँधी थी कि कम-से-कम उत्तराखण्ड में तो गंगा तथा यमुना और अधिक शोषित, प्रदूषित एवं अतिक्रमण होने से बच जाएँगी। हुआ उल्टा। इस दिशा में न्यायालय की मंशा और भारतीय सांस्कृतिक आस्था का सम्मान करने की बजाय, उत्तराखण्ड शासन हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया।  इस मामले में न तो स्वयं को गंगाभक्त कहने वाले शासकीय कर्णधारों ने स्थगनादेश लाने में कोई शर्म महसूस की और न ही प्रशासन ने गंगा में रेत खनन और पत्थर चुगान खनन माफिया के साथ मिलकर अनैतिक हथकंडे अपनाने में। गंगा में गैरकानूनी खनन और भ्रष्टाचार के खिलाफ वर्षों से संघर्ष कर रहे मातृसदन, हरिद्वार के सन्यासियों को चुप कराने पर उतारू स्थानीय प्रशासन की कारगुजारियाँ इस लेख को लिखे जाने तक भी जारी हैं और गंगा के सन्त और समाज... दोनों चुप हैं। ऐसे में अविरलता की उम्मीद बचे, तो बचे कैसे?

शून्य प्रयास का नतीजा सूखती गंगा

खैर, यह सर्वविदित तथ्य है कि गंगा में प्रवाहित होने वाले जल की कुल मात्रा में ग्लेशियरों का योगदान 35-40 प्रतिशत ही है। शेष 65-60 प्रतिशत मात्रा सहायक नदियों और भूजल प्रवाहों की देन है। क्या सहायक नदियों और भूजल प्रवाहों में जल की मात्रा बढ़ाने का कोई प्रयास इस बीच किया गया? यदि प्रभावी प्रयास हुआ होता, तो क्या गंगा जलग्रहण क्षेत्र की गंगा, यमुना, गोमती, नर्मदा जैसी नदियों के नाम, भारत की सबसे तेजी से सूखती आठ प्रमुख नदियों की सूची में शुमार होते? प्रयास होता, तो क्या उत्तराखण्ड की 20 प्रमुख नदियों में जल की उपलब्धता 10 वर्ष पहले 20 करोड़ लीटर की तुलना में घटकर गत वर्ष मध्य अप्रैल में मात्र 11 करोड़ लीटर रह गई होती? कदापि नहीं।

गंगा हित से विमुख परियोजनाएँ

कोई बताए कि घाटों को पक्का करने या उनके सौन्दर्यीकरण से क्या गंगा के प्रवाह को कोई लाभ होता है? उत्तराखण्ड में सड़क को 24 मीटर तक चौड़ी करने की जिद के चलते 60,000 पेड़ों को काटे जाने की योजना बनाने से गंगा की प्रवाह धारक क्षमता घटेगी कि बढ़ेगी?  गंगा जल परिवहन मार्ग के नाम पर वाराणसी से हल्दिया तक गंगा की खोद डालने से गंगा को नुकसान होगा या फायदा? क्या गंगा-यमुना की तह पर बहते हल्के ठोस पॉली, कागज और लकड़ी जैसे कचरे को मशीन लगाकर साफ करने से गंगाजल निर्मल हो जाएगा? खासकर तब, जब कि मशीनें सतही कचरे को ले जाकर प्रवाह से 50-100 फीट की दूरी पर रख देती हों और उस कचरे को उठाकर अन्यत्र ले जाना मशीन ठेकेदार की कार्य संविदा में शामिल न हो। दूसरी ओर, स्थानीय नगरपालिका ‘नमामि गंगे’ बजट से पैसा न मिलने की बिना पर उस कचरे को उठाने से इनकार कर दे। जाहिर है कि बारिश आने पर वह कचरा वापस नदी में पहुँचेगा ही। इससे नदी साफ होगी या पैसा? सूत्रानुसार, दिल्ली की यमुना नदी में पिछले आठ महीने से यही हो रहा है। हम एक तरफ तो गंगा में नाले गिराते रहें और दूसरी तरफ सतह पर मशीन घुमाते रहें। एक ओर घर-घर शौचालय बनाकर जलीय प्रदूषण बढ़ाते रहें और दूसरी ओर फूलों की खाद बनाने को प्रदूषण घटाने के एक बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश करते रहें। यह आँखों में धूल झोंकने का काम नहीं तो और क्या है?

खतरनाक है ओडीएफ इण्डिया की हड़बड़ी

गौर कीजिए कि भारत की वर्तमान मल शोधन क्षमता, मौजूदा मल भार की तुलना में काफी कम है; बावजूद इस अक्षमता के हमें ‘खुले में शौच से मुक्त भारत’ का तमगा हासिल करने की इतनी जल्दी है कि हम उन सुदूर गाँवों में भी मल का एक नया बोझ जबरन खड़ा करते जा रहे हैं, जहाँ किसी ने शौचालयों की कोई माँग नहीं की। इसे मल शोधन संयंत्र कम्पनियों हेतु भविष्य का बाजार सुनिश्चित करने की हड़बड़ी कहें, शासकीय बेसमझी कहें, ऊपरी आमदनी का लालच मानें या स्वच्छता का नाटक? खासकर तब, जब यह सब कुछ ऐसे निराधार तर्कों के आधार पर हो रहा हो, जिन्हें खुद शासकीय आँकड़े नकार रहे हैं।

भ्रामक है बन्द दरवाजे में शौच की शुचिता

याद कीजिए कि गुजरात मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए श्रीमती आनंदी बेन का तर्क था कि खुले में शौच के कारण बलात्कार के मामले बढ़ रहे हैं। बलात्कार के मामले 100 फीसदी घरों में शौचालय वाले नगरों में ज्यादा हुए हैं या बिना शौचालय वाले गाँवों में? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े खंगालिए, आनंदी जी के बयान का झूठ खुद-ब-खुद सामने आ जाएगा। घर-घर शौचालय बनाने को प्रेरित करने वाले विज्ञापनों का दूसरा बड़ा तर्क यह है कि खुले में शौच करने से बीमारी फैलती है। ‘खुले में शौच से मुक्त’ का दर्जा प्राप्त होने वाले इलाकों में बीमारों की संख्या के लगातार घटने का कोई प्रमाणिक अध्ययन कहीं हो, तो कोई बताए? अलबत्ता, ‘नीरी’ के एक जि़म्मेदार सूत्र के अनुसार, इस निष्कर्ष के प्रमाणिक अध्ययन अवश्य हैं कि जलस्रोतों की दूरी का ध्यान रखे बगैर ‘घर-घर शौचालय’ के गड्ढों को जिस अन्दाज में अंजाम दिया जा रहा है, उसके कारण भूजल में प्रदूषण बढ़ रहा है।  स्पष्ट है कि भूजल की सेहत खराब होगी, तो बन्द दीवारों में मौजूद शौच, बीमारों की संख्या घटाने की बजाय, बढ़ाएगा ही। भारत में बीमारियाँ, खुले में शौच करने से ज्यादा फैलती हैं या सीवेज को ले जाकर नदियों को प्रदूषित करने से? मेरा मानना है कि ऐसा तुलनात्मक अध्ययन करते ही खुले में शौच को प्रेरित करने वाले विज्ञापनों की पोल स्वतः खुल जाएगी। विचारणीय तथ्य यह भी है कि यदि भूजल प्रदूषित होगा, तो क्या तालाब और नदियाँ प्रदूषित होने से बच जाएँगे? जो नदी, तालाब जितना करीब होंगे, वे उतना जल्दी इस भूजल प्रदूषण की चपेट में आएँगे। तय मानिए कि हर घर में शौचालय की इस अनैतिक जिद की अन्तिम परिणति एक दिन जलापूर्ति पाइप, सीवेज पाइप, बिल, निजीकरण तथा गाँवों के तालाबों व नदियों में प्रदूषण के रूप में ही सामने आएगी; बावजूद, इसके गंगा किनारे की 1600 लक्ष्य गंगा ग्रामों में जोर सिर्फ-और-सिर्फ शौचालयों पर है।

नीयत पर सवाल उठाते नए मानक व निष्कर्ष

बराबर कहा जा चुका है कि उत्तर प्रदेश के गंगा ग्रामों की आबादी, सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक तथा नदी परिस्थिति कालीबेई व उसके समाज से भिन्न है। अतः पंजाब के संत बलबीर सिंह सींचेवाल कालीबेई नदी निर्मलीकरण मॉडल के उत्तर प्रदेश में सफल होने की सम्भावना भी कम ही है। बावजूद इसके ‘नमामि गंगे’ अन्य विकल्पों पर ध्यान नहीं दे रहा। उल्टे, एक प्रतिष्ठित शासकीय शोध संस्थान के निदेशक दावा कर रहे हैं कि गंगा के 5-7 प्रतिशत प्रवाह मार्ग को छोड़कर, शेष प्रवाह मार्ग का पानी अब ठीक-ठाक है। गंगा किनारे के इलाकों में प्रदूषण के बढ़ते दुष्प्रभावों को देखते हुए ऐसे निष्कर्षों की प्रमाणिकता और उसके मकसद की नीयत पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं; सो,उठ रहे हैं। सवाल, 13 अक्टूबर, 2017 को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अपर सचिव श्री अरुण कुमार मेहता की ओर से जारी शुद्ध मानकों में संशोधन सम्बन्धी एक अधिसूचना (संख्या - 843) को लेकर भी है। अधिसूचना के सन्दर्भ में एक पत्रिका द्वारा पेश निम्न तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, अक्टूबर, 2015 में अपने द्वारा बनाए मानकों के पैमानों को खुद ही गिराने पर लग गया है। कृपया सारणी देखें:

 

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा संशोधित मानक

तत्व

 

मानक और निर्धारण वर्ष

वर्ष 1986

अक्टूबर 2015

अक्टूबर 2017

बीओडी (मिग्रा प्रति लीटर)

30

10

30  (प्रदेशानुसार)

सीओडी (मिग्रा प्रति लीटर)

250

50

अनन्त

टीएसएस (मिग्रा प्रति लीटर)

100

10

50 से 100 (प्रदेशानुसार)

नाइट्रोजन (मिग्रा प्रति लीटर)

100

10

अनन्त

अमोनिकल नाइट्रोजन (मिग्रा प्रति लीटर)

50

05

अनन्त

फास्फोरस (मिग्रा प्रति लीटर)

अनन्त

01

अनन्त

मलीय कोलीफॉर्म (एमपीएन प्रति सौ मिली)

अनन्त

100

1000

 

ऐसा लगता है कि मानकों में बदलाव की यह कारगुजारी, गंगा नदी को 2018 तक निर्मल करने को लेकर पूर्व में किये गए गंगा मंत्रालयी दावे की असफलता को छिपाने के लिये की गई है; ताकि नए कमजोर मानकों के आधार पर सम्बन्धित मंत्रालय यह दावा कर सके कि ‘नमामि गंगे’ के प्रयासों से गंगा निर्मल हुई है। इस कारगुजारी के कारण, बाजारू भी हो सकते हैं। गौरतलब है कि और अधिक मल शोधन संयंत्र लगाने के लिये अभी जल्द में ही हिंडन, काली, गोमती और रामगंगा नदी को भी ‘नमामि गंगे’ परियोजना में शामिल किया गया है। इसी तरह की एक कारगुजारी, माहसीर मछली को आने-जाने के लिये नदी जल की गहराई मानक को लेकर की गई है। विश्व वन्य जीव कोष से सम्बद्ध एक सूत्र के मुताबिक, माहसीर के लिये सुविधाजनक गहराई तीन मीटर मानी गई है। पहले वे इसको घटाकर 0.5 मीटर करना चाहते थे। तमाम तर्कों के बावजूद, वे इसे एक मीटर से आगे लाने पर राजी नहीं हुए हैं। यह हाल तब है जब हमारे कुकर्मों के कारण 100 किलोग्राम तक वजन वाली माहसीर मछली की पीढ़ियाँ, अब गंगाजल में पाँच किलोग्राम से आगे नहीं बढ़ पा रहीं।

कितनी सदाचारी नमामि गंगे?

एक ओर अध्ययन के नाम पर 600 करोड़ रुपए, जनजागरण के नाम पर 128 करोड़ रुपए और टास्क फोर्स की चार बटालियनों के निर्माण के लिये 400 करोड़ रुपए और उत्तर प्रदेश मेें योगी जी द्वारा प्रस्तावित गंगा सेवा यात्रा हेतु 400 करोड़ के बजट निर्धारित करना और दूसरी ओर साढ़े तीन साल में चिन्हित 1109 गम्भीर प्रदूषण उद्योगों में से मात्र 300 को बन्द करा पाने की गति को आप सदाचार की श्रेणी में रखेंगे या भ्रष्टाचार की? ‘नमामि गंगे’ के घोषित बजट में केदारनाथ, हरिद्वार, दिल्ली, कानपुर, वाराणसी और पटना के घाटों के लिये 250 करोड़ की धनराशि का प्रावधान था।  15 जनवरी, 2018 की ताजा खबर के अनुसार घाट व मन्दिरों के डिजाइन, सौन्दर्यीकरण तथा रख-रखाव का काम अब अगले 15 साल के लिये हरिद्वार-ऋषिकेश में हिंदुजा बन्धु को, कानपुर में जहाज कारोबारी रवि मल्होत्रा को, वाराणसी में एचसीएल समूह के शिव नादर को, पटना में वेदांता समूह के अनिल अग्रवाल को और सम्भवतः दिल्ली में पेट्रो रसायन, उर्वरक तथा धागा आदि बनाने वाले इंडरोमा समूह को सौंप दिया गया है। गंगा जलग्रहण क्षेत्र में वानिकी एवं हरियाली हेतु केन्द्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री द्वारा 2500 करोड़ की ताजा घोषणा का हश्र आगे पता चलेगा।

आरोप कई, जाँच जरूरी

नदी कार्यकर्ताओं के आरोप हैं कि ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट’ नदी से उसकी जमीन छीनने का खेल है। सौन्दर्यीकरण तथा रख-रखाव के नाम पर घाटों को कम्पनियों को सौंपने से तीर्थ पुरोहित और नाविकों के हाथों से तीर्थ पर्यटन तथा मछुआरों के हाथों से उनकी आजीविका छिन जाने का खतरा हमेशा रहने वाला है। व्यापक वृक्षारोपण के नाम पर गंगा किनारे खेती करने वाले गरीब-गुरबा किसानों के हाथों से नदी भूमि छीनकर कम्पनियों/संस्थाओं के हाथों को देने का खेल है।  ‘गंगा ग्राम’ की गढ़मुक्तेश्वर परियोजना की सीबीआई जाँच का आदेश देते हुए राष्ट्रीय हरित पंचाट, पहले ही अन्य परियोजनाओं में गड़बड़ी की सम्भावना व्यक्त कर चुका है। सूत्र कहते हैं कि भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन निदेशालय में नियुक्ति और खरीद-फरोख्त से लेकर परियोजनाओं के जमीनी क्रियान्वयन तक में हुआ है। बजट का पूरा उपयोग नहीं करने को ‘कैग’ भले ही गलत माने, लेकिन यदि उक्त आरोपों में दम है तो अच्छा ही हुआ; वर्ना शेष खर्च हुआ धन भी कम-से-कम गंगा का हित तो नहीं ही करता। अतः जाँच ज़रूरी है; जाँच हो। जनता की ओर से ‘सूचना के अधिकार’ के कार्यकर्ता पहल करें।

अविरलता नहीं, तो बन्द करो निर्मलता के नाटक

भारत को आजाद हुए 70 बरस हो चुके। इस 26 जनवरी, 2018 को एक गणतंत्र राष्ट्र बने भी हमें 67 बरस तो हो ही गए। दुःखद है कि 67 वर्षीय विशाल गणतंत्र होते हुए भी आज हम गंगा जैसी देवतुल्य नदी को बिकते, शोषित होते देख रहे हैं। मुझे यह लिखने मेें कतई गुरेज नहीं, हम आज भी एक अक्षम गणतंत्र ही हैं। यह हमारी अक्षमता का नतीजा है कि भारत की जन-जन की आस्था और राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक बनी गंगा जैसी अद्भुत नदी भी, आज सामाजिक, धार्मिक अथवा शासकीय एजेंडा न होकर, कारपोरेट एजेंडा बनने को मजबूर हैं और उनका प्रदूषण, महज एक मुनाफा उत्पाद।  यह भूलने की बात नहीं कि नदियों के नाम पर भारत, विश्व बैंक से अब तक करीब एक अरब डॉलर का कर्ज ले चुका है। आजादी के बाद से अब तक गंगा सफाई के नाम पर 20 हजार करोड़ रुपए खर्च कर चुका है। बावजूद, इसके भारत की नदियों में प्रदूषण का स्तर पिछले एक दशक में घटने की बजाय, दोगुने से अधिक बढ़ गया है। नदियों में मिलने वाले मलीय जल की मात्रा भी 3800 करोड़ लीटर से बढ़कर, 62,000 करोड़ लीटर हो गई है।  प्रदूषित नदियों के कई किलोमीटर के खेत बांझ होने की दिशा में अग्रसर हैं और जीव, बीमार होने की दशा में। ऐसा सिर्फ-और-सिर्फ इसलिये है कि कम्पनियों के मुनाफे बढ़ाने तथा नेता, अफसर, इंजीनियर तथा स्थानीय ठेकेदारों की जेबें भरने की फिक्र में हमारे शासकीय कर्णधारों ने नदियों की अविरलता की पूरी तरह उपेक्षा करना तय कर लिया है और भारतीय जनमानस चुप्पी मारे बैठा है। ऐसे में भारतीय वैज्ञानिक, सन्त और समाज.. तीनों से मेरा निवेदन है कि कुछ सार्थक जमीनी पहल करना तो दूर, यदि गंगा जैसी देवतुल्य नदी को भी त्रिआयामी अविरलता सुनिश्चित करने के लिये मुँह तक नहीं खोलना चाहते, तो घुटने दो गंगा का गला; बन्द करो स्वयं को गंगापुत्र और गंगापुत्री कहना। ‘नमामि गंगे’ के कर्णधार भी बन्द करेे निर्मलता के नाटक। इस कारण यदि माँ गंगा अन्ततः मर भी गई, तो कम-से-कम भारत को कर्जदार और भ्रष्टाचारी बनाने की वाहक बनकर तो नहीं मरेगी; जनता पर कर लादकर जुटाया बेशकीमती धन बचेगा, सो अलग।

 

In case responsiblities not assigned, any negative or positive reputation would go to everyone.
  • Venue-No address Setup
Leave a comment.
Subscribe to this research.

Enter email below to get the latest updates on this research.