
बाबा नागार्जुन
की एक लोकप्रिय कविता की कुछ पंक्तियां हैं -
जो छोटी-सी नैया
लेकर उतरे करने को
उदधि-पार;
मन की मन में ही
रही¸ स्वयँ हो गए उसी में
निराकार !उनको प्रणाम !
जो उच्च शिखर की
ओर बढ़े रह-रह नव-नव
उत्साह भरे;
पर कुछ ने ले ली
हिम-समाधि कुछ असफल ही नीचे
उतरे !उनको प्रणाम !
कृत-कृत नहीं जो
हो पाए; प्रत्युत फाँसी
पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते
हैं¸ फिर भी यह दुनिया जिनको
गई भूल !उनको प्रणाम !
जिनकी सेवाएँ
अतुलनीय पर विज्ञापन से
रहे दूर
प्रतिकूल
परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ
चूर-चूर !उनको प्रणाम !
ऐसा प्रतीत हो
रहा है बाबा ने आज ही यह सब लिखा हो.
वो किसान की ही
लड़का होता है, जो खेत भी जोतता
है और सीमाओं पर वीरगति को भी प्राप्त होता है. वो जो मिटटी में बीज बोता है,
नहर-नालों का रुख अपनी जमीन की ओर मोड़ देता है,
ये वही किसान का लड़का है, जो बुआई से कटाई के बीच हमारे शहरों में सडकें,
पुल और इमारतें बना देता है. वो दिखता नहीं है
हमारे बीच कहीं. किसान का लड़का अक्सर हमारी दृष्टि से ओझल होता है. लेकिन जब भी हम
जागते हैं या अपने शहरों को थोड़ी दूर से देखते हैं तो लगता है कुछ चीजें हैं जो
स्वत: बन जाती है, बगैर हमारे किसी
योगदान के. फिर हम सोचते हैं कोई तो वो लोग होंगे जो आये और कुछ बनाकर ओझल हो गए.
शहर फिर व्यस्त हो जाते है अपने ही कोलाहल में और फिर हमारी सोच के मंच पर भी जल्द
ही पटाक्षेप हो जाता है.
देखें तो इन
लोगों की भी अपनी एक यात्रा होती है. वो जब होते हैं या चलते हैं तो आपको नदियों
के प्रवाह के जैसा कुछ प्रतीत होता है. वैश्विक सभ्यताओं के नदियों से जुडाव को तो
हम समझते ही हैं लेकिन इन लोगों के लिए यह जुडाव मातृप्रेम से कम नहीं.
खेती-किसानी से जुडी हमारी 60-65% आबादी जीडीपी की गणनाओं में शुमार नहीं होती ना
ही राष्ट्रनिर्माण के गौरव से अभिभूत होती है. लेकिन अपनी जमीन और मिटटी से सरोबार
इन लोगों की उर्वरा शक्ति अक्सर आपको राजनैतिक समीकरणों में प्रेरक भूमिकाओं में
मिल जाएगी. प्रजातंत्र अगर संख्या का खेल है तो हमारे नदी-पुत्र इस खेल के
"ग्लेडिएटर्स" होते हैं.
तो ऐसा क्या है
इन जड़ों में जो हमारे इन नदी पुत्रों को "ग्लेडिएटर्स" तो बनाता है
लेकिन तालियां पीटने वाला किसी राजतंत्र का सिरमौर नहीं बनने देता. हमारे देश में
विशेषकर गंगा के मैदानों ने इस पीढ़ी की ऐसी ही खेप देखी है. गंगोत्री, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के सुंदर वन तक गंगा का हजारों सालों से प्रवाह है.
गंगा के यह मैदानी इलाके ना सिर्फ बेहद घने हैं बल्कि भूगर्भ जल, उर्वरा मिटटी एवं अनुकूल मौसम के धनी हैं. गंगा
के इन मैदानी इलाकों का इतिहास इंसानी आबादी के उन तमाम रंगों, जैसे कला, संस्कृति, भषा, ज्ञान विज्ञान, युद्ध, शासन तंत्र एवं
अपराध आदि से अतिरंजित रहा है. वहीँ इस क्षेत्र ने मौर्य काल के उपरांत उप
महाद्वीप में अपनी शक्तियों एवं प्रभाव का निरंतर क्षय भी देखा है. गंगा पुत्रों
ने सर्वत्र विश्व में अपने ज्ञान-विज्ञान, श्रम एवं प्रशासनिक योग्यताओं से अपनी मातृभूमि को गौरान्वित भी किया है,
वहीं एक बहुत बड़ी आबादी जिसने पहले मुगलों एवं
कालांतर में अंग्रेजों के शासन को अंगीकार कर के अपनी भूमि के इतिहास में नए
अध्याय भी जोड़े.

आज़ादी के बाद गंगा
के यही मैदान भारतवर्ष के लिए प्रचंड बौद्धिक व वैचारिक आंदोलनों के महान स्त्रोत
रहे. गंगा द्वारा पोषित इन्हीं जमीनों से बुद्ध, महावीर, परमहंस और कबीर
जैसे आध्यात्मिक महापुरुष हुए तो वहीं शास्त्री, डॉ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, बाबू जगजीवन राय, जयप्रकाश नारायण जैसी राजनैतिक विभूतियां भी
हुयी, भारत की समकालीन राजनीति
में यह अक्सर कहा जाता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर
जाता है. समकालीन राजनीति में गंगा के मैदानों की विशाल आबादी जो कि लगभग पूरे
भारत की जनसंख्या का 35% है, को प्रजातंत्र के
लिहाज से साधने की कवायद निरंतर चलती रहती है. किन्तु चाहे वह दिल्ली का तख्त हो
या ज्ञान-विज्ञान, खेल-कूद, कला-संस्कृति कुछ तो हुआ है जिसकी वजह से इन
सभी क्षेत्रों के शक्ति समीकरणों में हमारे गंगापुत्र पिछड़ गए हैं. जब समाज के
प्रतिनिधि, आपकी संस्कृति की
विभूतियां जब शक्ति समीकरणों के शीर्ष तक नहीं पहुंच पाती तो एक बहुत बड़ी आपकी
आबादी क्या "सेवक वर्ग" में शुमार हो जाती है? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है आज के परिप्रेक्ष्य में. और फिर
ध्यान आता है कि अत्याधिक घनी आबादी ने क्या इस क्षेत्र के संसाधनों पर इतना दबाव
डाला कि इन क्षेत्रों में जीवन के मूलभूत जरूरतों को सुनिश्चित करने का संघर्ष ही
सर्वोपरि रहा.

शक्ति समीकरणों
में गंगा को किसानों के पैठ की कोशिशों का भी अपना एक इतिहास है. अवध के नवाब
शुजाउद्दौला के बक्सर की लडाई, बंगाल के नवाब
सिराजुद्दौला की प्लासी की लडाई से लेकर सुभाष बाबु के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
की अध्यक्षता, जय प्रकाश नारायण
के संपूर्ण क्रांति, स्व.
प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का भारतीय राजनैतिक पटल पर एक नव देदीप्यमान तारे की तरह
स्थापित होने तक, कई उल्लेखनीय
उदाहरण गंगा-पुत्रों के राष्ट्रीय शक्ति समीकरणों में मुखर रहे हैं. अपनी मिटटी से
सशक्त जुडाव ने इस क्षेत्र में आर्थिक तौर पर कृषि एवं लघु उद्योगों की प्रधानता
को बनाये रखा एवं सैंकड़ों सालों से इस क्षेत्र को वृहद् औद्योगीकरण से वंचित रखा.
परिणामस्वरूप गंगापुत्रों की यहां की मिटटी पर व्यापक निर्भरता बनी रही. वृहद्
औद्योगीकरण ने जहां दक्षिण एवं पश्चिमी भारत में रोजगार एवं तकनीकी शिक्षा के कई
अवसर पैदा किये वहीं हमारी इन अत्याधिक घनी आबादी वाले क्षेत्रों में इन अवसरों की
घोर कमी रही. विगत दो-तीन दशकों में इस क्षेत्र की ऊर्जा फिर अवसरों की खोज में
सरकारी नौकरियों एवं भारत के अपेक्षाकृत अधिक विकसित इलाकों की तरफ पलायन करने को
विवश बनी रही. इनमें भूमिहीन किसानों एवं शहरी क्षेत्रों के निम्न माध्यम वर्ग के
लोगों की अधिकता रही.
अपनी जमीन से
पलायन आपको आपकी जड़ों एवं उसके गौरव से वंचित कर देता है और फिर इसी गौरव को आप
अपनी क्षणिक पहचान, क्षणिक प्रसिद्धि,
क्षणिक तुष्टियों और सबसे भयावह कि अपने लोगों
की वीरगति में खोजते हैं. मानव मन जब आजीविका के साथ साथ गौरव की तलाश में निकलता
है तब परदेश की जमीन पर इन संभावनाओं को साथ लेकर रहता है, बहुतों के लिए यह संभावनाएं जब धीरे धीरे मृतप्राय होती
जाती हैं तब उनके लिए अपनी जड़ों तक वापस लौटने की विवशता भी प्रबल होने लगती है.
कला एवं संस्कृति
के एक प्रखर आयाम के तौर पर भोजपुरी सिनेमा को हम बॉलीवुड़ के प्रतिक्रियात्मक
स्वरुप में देखते हैं. हालांकि भोजपुरी सिनेमा को यदि हम मूलतः एक सशक्त
अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में भी देखें तो इसने समयांतर अपनी रचनात्मकता एवं
प्रतिभा का ह्रास ही देखा है. नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से एवं नवीन संचार
माध्यमों के प्रादुर्भाव के साथ भोजपुरी सिनेमा बंबइया सिनेमा के विकल्प के रूप
में परोसी गयी. किंतु जल्द ही इस माध्यम से मौलिक अभिव्यक्ति काफूर हो गयी,
फूहड़ता हावी हो गयी और यह सिनेमा अपना एक खास
दर्शक वर्ग बना कर बॉलीवुड़ के पर्याय बनने की संभावनाओं से हाथ धो बैठा.
अपनी शक्तियों को
निरंतर खोना गंगापुत्रों के लिए गहन चिंता का विषय तब ही बनता है जब कोई
"सुशांत सिंह राजपूत" अपनी गौरव यात्रा को फांसी पर झूलकर खत्म कर लेता
है या फिर "बिहार रेजीमेंट" की शहादत को राजनैतिक लाभ के लिए इस्तेमाल
किया जाता है.

"पावन:
पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां
मकरश्चास्मि स्तोत्रसामस्मि जाह्रवी ।।"
जाह्रवी अथार्त
गंगा की श्रेष्ठता का इससे अच्छा उद्धरण हमारे इतिहास में नहीं मिलता जब भगवान
श्री कृष्ण स्वयं को इनकी श्रेष्ठता से परिभाषित करते हैं. गंगा किनारे रहने वालों
को उनकी श्रेष्ठता का मान कराना एक परमार्थ उद्देश्य होना चाहिए. राष्ट्रकवि दिनकर
के शब्दों में-
अंधा, चकाचौंध का मारा/ क्या जाने इतिहास बेचारा/ साखी
हैं उनकी महिमा के/ सूर्य चंद्र, भूगोल खगोल/ कलम
आज उनकी जय बोल.
इस समस्त भूमिका
का उद्देश्य हमें अपने क्षेत्र के गौरव की पुनर्स्थापना एवं अपनी ताकतों का अनुभव
करने के प्रयोजन के लिए एक समग्र विमर्श शुरू करना है.
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Anand Prakash 39
बाबा नागार्जुन की एक लोकप्रिय कविता की कुछ पंक्तियां हैं -
ऐसा प्रतीत हो रहा है बाबा ने आज ही यह सब लिखा हो.
वो किसान की ही लड़का होता है, जो खेत भी जोतता है और सीमाओं पर वीरगति को भी प्राप्त होता है. वो जो मिटटी में बीज बोता है, नहर-नालों का रुख अपनी जमीन की ओर मोड़ देता है, ये वही किसान का लड़का है, जो बुआई से कटाई के बीच हमारे शहरों में सडकें, पुल और इमारतें बना देता है. वो दिखता नहीं है हमारे बीच कहीं. किसान का लड़का अक्सर हमारी दृष्टि से ओझल होता है. लेकिन जब भी हम जागते हैं या अपने शहरों को थोड़ी दूर से देखते हैं तो लगता है कुछ चीजें हैं जो स्वत: बन जाती है, बगैर हमारे किसी योगदान के. फिर हम सोचते हैं कोई तो वो लोग होंगे जो आये और कुछ बनाकर ओझल हो गए. शहर फिर व्यस्त हो जाते है अपने ही कोलाहल में और फिर हमारी सोच के मंच पर भी जल्द ही पटाक्षेप हो जाता है.
देखें तो इन लोगों की भी अपनी एक यात्रा होती है. वो जब होते हैं या चलते हैं तो आपको नदियों के प्रवाह के जैसा कुछ प्रतीत होता है. वैश्विक सभ्यताओं के नदियों से जुडाव को तो हम समझते ही हैं लेकिन इन लोगों के लिए यह जुडाव मातृप्रेम से कम नहीं. खेती-किसानी से जुडी हमारी 60-65% आबादी जीडीपी की गणनाओं में शुमार नहीं होती ना ही राष्ट्रनिर्माण के गौरव से अभिभूत होती है. लेकिन अपनी जमीन और मिटटी से सरोबार इन लोगों की उर्वरा शक्ति अक्सर आपको राजनैतिक समीकरणों में प्रेरक भूमिकाओं में मिल जाएगी. प्रजातंत्र अगर संख्या का खेल है तो हमारे नदी-पुत्र इस खेल के "ग्लेडिएटर्स" होते हैं.
तो ऐसा क्या है इन जड़ों में जो हमारे इन नदी पुत्रों को "ग्लेडिएटर्स" तो बनाता है लेकिन तालियां पीटने वाला किसी राजतंत्र का सिरमौर नहीं बनने देता. हमारे देश में विशेषकर गंगा के मैदानों ने इस पीढ़ी की ऐसी ही खेप देखी है. गंगोत्री, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के सुंदर वन तक गंगा का हजारों सालों से प्रवाह है. गंगा के यह मैदानी इलाके ना सिर्फ बेहद घने हैं बल्कि भूगर्भ जल, उर्वरा मिटटी एवं अनुकूल मौसम के धनी हैं. गंगा के इन मैदानी इलाकों का इतिहास इंसानी आबादी के उन तमाम रंगों, जैसे कला, संस्कृति, भषा, ज्ञान विज्ञान, युद्ध, शासन तंत्र एवं अपराध आदि से अतिरंजित रहा है. वहीँ इस क्षेत्र ने मौर्य काल के उपरांत उप महाद्वीप में अपनी शक्तियों एवं प्रभाव का निरंतर क्षय भी देखा है. गंगा पुत्रों ने सर्वत्र विश्व में अपने ज्ञान-विज्ञान, श्रम एवं प्रशासनिक योग्यताओं से अपनी मातृभूमि को गौरान्वित भी किया है, वहीं एक बहुत बड़ी आबादी जिसने पहले मुगलों एवं कालांतर में अंग्रेजों के शासन को अंगीकार कर के अपनी भूमि के इतिहास में नए अध्याय भी जोड़े.
आज़ादी के बाद गंगा के यही मैदान भारतवर्ष के लिए प्रचंड बौद्धिक व वैचारिक आंदोलनों के महान स्त्रोत रहे. गंगा द्वारा पोषित इन्हीं जमीनों से बुद्ध, महावीर, परमहंस और कबीर जैसे आध्यात्मिक महापुरुष हुए तो वहीं शास्त्री, डॉ राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, बाबू जगजीवन राय, जयप्रकाश नारायण जैसी राजनैतिक विभूतियां भी हुयी, भारत की समकालीन राजनीति में यह अक्सर कहा जाता है कि दिल्ली की कुर्सी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. समकालीन राजनीति में गंगा के मैदानों की विशाल आबादी जो कि लगभग पूरे भारत की जनसंख्या का 35% है, को प्रजातंत्र के लिहाज से साधने की कवायद निरंतर चलती रहती है. किन्तु चाहे वह दिल्ली का तख्त हो या ज्ञान-विज्ञान, खेल-कूद, कला-संस्कृति कुछ तो हुआ है जिसकी वजह से इन सभी क्षेत्रों के शक्ति समीकरणों में हमारे गंगापुत्र पिछड़ गए हैं. जब समाज के प्रतिनिधि, आपकी संस्कृति की विभूतियां जब शक्ति समीकरणों के शीर्ष तक नहीं पहुंच पाती तो एक बहुत बड़ी आपकी आबादी क्या "सेवक वर्ग" में शुमार हो जाती है? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है आज के परिप्रेक्ष्य में. और फिर ध्यान आता है कि अत्याधिक घनी आबादी ने क्या इस क्षेत्र के संसाधनों पर इतना दबाव डाला कि इन क्षेत्रों में जीवन के मूलभूत जरूरतों को सुनिश्चित करने का संघर्ष ही सर्वोपरि रहा.
शक्ति समीकरणों में गंगा को किसानों के पैठ की कोशिशों का भी अपना एक इतिहास है. अवध के नवाब शुजाउद्दौला के बक्सर की लडाई, बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की प्लासी की लडाई से लेकर सुभाष बाबु के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षता, जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति, स्व. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का भारतीय राजनैतिक पटल पर एक नव देदीप्यमान तारे की तरह स्थापित होने तक, कई उल्लेखनीय उदाहरण गंगा-पुत्रों के राष्ट्रीय शक्ति समीकरणों में मुखर रहे हैं. अपनी मिटटी से सशक्त जुडाव ने इस क्षेत्र में आर्थिक तौर पर कृषि एवं लघु उद्योगों की प्रधानता को बनाये रखा एवं सैंकड़ों सालों से इस क्षेत्र को वृहद् औद्योगीकरण से वंचित रखा. परिणामस्वरूप गंगापुत्रों की यहां की मिटटी पर व्यापक निर्भरता बनी रही. वृहद् औद्योगीकरण ने जहां दक्षिण एवं पश्चिमी भारत में रोजगार एवं तकनीकी शिक्षा के कई अवसर पैदा किये वहीं हमारी इन अत्याधिक घनी आबादी वाले क्षेत्रों में इन अवसरों की घोर कमी रही. विगत दो-तीन दशकों में इस क्षेत्र की ऊर्जा फिर अवसरों की खोज में सरकारी नौकरियों एवं भारत के अपेक्षाकृत अधिक विकसित इलाकों की तरफ पलायन करने को विवश बनी रही. इनमें भूमिहीन किसानों एवं शहरी क्षेत्रों के निम्न माध्यम वर्ग के लोगों की अधिकता रही.
अपनी जमीन से पलायन आपको आपकी जड़ों एवं उसके गौरव से वंचित कर देता है और फिर इसी गौरव को आप अपनी क्षणिक पहचान, क्षणिक प्रसिद्धि, क्षणिक तुष्टियों और सबसे भयावह कि अपने लोगों की वीरगति में खोजते हैं. मानव मन जब आजीविका के साथ साथ गौरव की तलाश में निकलता है तब परदेश की जमीन पर इन संभावनाओं को साथ लेकर रहता है, बहुतों के लिए यह संभावनाएं जब धीरे धीरे मृतप्राय होती जाती हैं तब उनके लिए अपनी जड़ों तक वापस लौटने की विवशता भी प्रबल होने लगती है.
कला एवं संस्कृति के एक प्रखर आयाम के तौर पर भोजपुरी सिनेमा को हम बॉलीवुड़ के प्रतिक्रियात्मक स्वरुप में देखते हैं. हालांकि भोजपुरी सिनेमा को यदि हम मूलतः एक सशक्त अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में भी देखें तो इसने समयांतर अपनी रचनात्मकता एवं प्रतिभा का ह्रास ही देखा है. नब्बे के दशक के उत्तरार्ध से एवं नवीन संचार माध्यमों के प्रादुर्भाव के साथ भोजपुरी सिनेमा बंबइया सिनेमा के विकल्प के रूप में परोसी गयी. किंतु जल्द ही इस माध्यम से मौलिक अभिव्यक्ति काफूर हो गयी, फूहड़ता हावी हो गयी और यह सिनेमा अपना एक खास दर्शक वर्ग बना कर बॉलीवुड़ के पर्याय बनने की संभावनाओं से हाथ धो बैठा.
"पावन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्तोत्रसामस्मि जाह्रवी ।।"
जाह्रवी अथार्त गंगा की श्रेष्ठता का इससे अच्छा उद्धरण हमारे इतिहास में नहीं मिलता जब भगवान श्री कृष्ण स्वयं को इनकी श्रेष्ठता से परिभाषित करते हैं. गंगा किनारे रहने वालों को उनकी श्रेष्ठता का मान कराना एक परमार्थ उद्देश्य होना चाहिए. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में-
इस समस्त भूमिका का उद्देश्य हमें अपने क्षेत्र के गौरव की पुनर्स्थापना एवं अपनी ताकतों का अनुभव करने के प्रयोजन के लिए एक समग्र विमर्श शुरू करना है.