वास्तविक लोकतंत्र जनता द्वारा, जनहित के लिए, जनता के मध्य
से ही बनाई गयी सरकारी व्यवस्था में निहित है.
- (अब्राहम लिंकन)
प्रजातंत्र के वास्तविक स्वरुप का अवलोकन करते हुए जनता की
सर्वाधिक अहम और निर्णायक भूमिका की जो संकल्पना भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति
अब्राहम लिंकन द्वारा की गयी थी, वह सर्वथा उचित होते हुए भी विगत कुछ समय से
आधुनिक टेक्नोलॉजी और नव संचार मीडिया के उपागमों की भेंट चढ़ रही है. अमेरिकी
चुनावों और ब्रेक्सिट
जनमत-संग्रहण में जिस प्रकार फेसबुक को माध्यम बनाकर, संभावित रुसी विज्ञापनों
के चलते मतदाताओं की राय में जोड़-तोड़ करने का प्रयास किया गया..उसने वैश्विक प्रजातंत्र
की प्राचीनतम गरिमा को ही संकट में ला कर खड़ा कर दिया.

लोकतंत्र, यानि लोगों का तंत्र, चंद हाथों की कठपुतली बनकर
रह गया तथा फेसबुक- व्हाट्सएप खेलते खेलते
अनगिनत उपयोगकर्ता अपने बहुमूल्य मत की सार्वभौमिकता को कब- कैसे कुछ पूंजीवादी
लोभी कंपनियों के हाथों बेच बैठे..वे समझ भी नहीं सके. दावानल की भांति विस्तृत यह
मुद्दा इतना ज्वलनशील है कि इसका ताप विश्व भर के लोकतांत्रिक देशों में महसूस
किया जा रहा है. अमेरिका, ब्रिटेन, भारत इत्यादि देशों में प्रत्यक्ष तो अन्य
देशों में परोक्ष रूप से ही सही, परन्तु फेसबुक
की भूमिका पर प्रश्नचिंह खड़े होने लगे हैं. हाल ही में यूके की संसद में भी यह
मुद्दा उठाया गया, जिसकी विस्तृत जानकारी अग्रलिखित है.
जाने ब्रिटिश सांसदों का दूरगामी मंतव्य -
यूके की पार्लियामेंट्री कमेटी ने चेतावनी दी है कि फेक
न्यूज से वोटर्स को प्रभावित करने और उनके डाटा से छेड़छाड़ करने की वजह से यूके
को प्रजातांत्रिक संकट का सामना करना पड़ सकता है. कैम्ब्रिज एनालिटिका डाटा
स्कैंडल से जुड़ी फेक न्यूज और सूचनाओं की
डिजिटल, कल्चर, मीडिया एंड स्पोर्टस कमेटी जांच कर रही है. टेक्नॉलजी और
सोशल मीडिया पर फेक खबरें लोगों को किस तरह से प्रभावित करती हैं, इस विषय पर हुई
जांच के एक महिने बाद ब्रिटिश सांसद ने एक रिपोर्ट पेश की.
डिजिटल, कल्चर, मीडिया एंड स्पोर्टस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट
में अत्याधिक पक्षपाती व्यूज के जरिये लोगों की राय और समझ को प्रभावित करने
सम्बन्धी मुद्दे पर विशेष ध्यान देने पर जोर दिया है, जो वोटिंग प्लान्स को
प्रभावित करने के लिए लोगों के डर के साथ खेलता है. जांच कमेटी की यह रिपोर्ट
पब्लिक होने से पहले ही लीक हो गई थी. जिसका कारण ब्रेक्सिट कैंपेन ग्रुप वोट लीव
के डायरेक्टर ‘डॉमिनिक कंमिंग्स’ द्वारा यह रिपोर्ट दो दिन पहले ही अपने निजी
ब्लॉग में पब्लिश करना था. जिसके लिए उन्हें समन भेजा गया और वोट लीव कैंपेन
से जुड़े आरोपों पर जबाव भी मांगा गया, लेकिन उन्होंने इसे नकारते हुए इसे ‘फेक न्यूज’ करार दिया.
कॉमन सीएमएस
कमेटी की सदस्या जो स्टीवन ने ट्वीट किया कि,
“हमारा लोकतंत्र इस वक्त खतरे में है और यह समय इस पर
काम करने का है.”

कुछ मुख्य मुद्दे जिनके माध्यम से यह साबित किया जा सकता है
कि फेक खबरों द्वारा ब्रेक्सिट चुनाव प्रक्रिया पर प्रभाव डाला गया, वे इस प्रकार
हैं..
- ब्रेक्सिट चुनाव कैंपेन में फेसबुक रूसी विज्ञापनों की
संभावित भूमिका.
- कैंब्रिज एनालिटिका द्वारा फेक न्यूज व्यापक स्तर पर
प्रचारित करना.
- वोट लीव अभियान ने चुनावी नियमों को ताक पर रखा.
- वोट लीव ने 2.7 मिलियन पाउंड फेसबुक पर योजनाबद्ध
विज्ञापनों में खर्च किये जाना.
कॉमन सीएमएस कमेटी के अनुसार, “जांच के दौरान फेसबुक ने
हमें उसकी कंपनी की सूचना निकालने से रोकने का प्रयास किया. फेसबुक को लगता है यदि
वह समस्या से जुड़ी सूचना शेयर नहीं करेगा तो समस्या दूर हो जायेगी. वहीं इस मामले
में ऐसे गवाह पेश किये गये, जो कि कमेटी के सवालों का पूरी तरह से जबाव देने में
समर्थ नहीं थे. इसलिए कमेटी फेसबुक चीफ मार्क जुकरबर्ग से दोबारा सबूत की मांग करेगी.”
कॉमन सीएमएस कमेटी की सिफारिश –
डिजिटल, कल्चर, मीडिया एंड स्पोर्टस कमेटी की सिफारिश है कि
सोशल मीडिया साइट्स को अपनी साइट्स पर पोस्ट हुए हर प्रकार के अनैतिक कंटेंट की
जिम्मेदारी लेनी चाहिए.
फेसबुक और यूट्यूब जैसी सोशल मीडिया की कंपनियां बार- बार
यह कहती हैं कि वह एक प्रकाशक न होकर महज एक प्लेटफार्म हैं और वह अपनी साइट्स पर
पोस्ट होने वाले किसी भी प्रकार के कंटेंट के लिए जिम्मेदार नहीं हैं.
इस पर जांच कमेटी ने सुझाव दिया है कि सोशल मीडिया कंपनी
सिर्फ यह दावा करके खुद को नहीं बचा सकतीं. वह एक ऐसी नयी प्रकार की टेक कम्पनी का
निर्माण करें जो कि प्लेटफार्म और प्रकाशक के बीच में मध्यस्थ का काम करे तथा यह
टेक कंपनी अपने प्लेटफार्म पर लिखे गये हर प्रकार के अनैतिक और असंवैधानिक कटेंट
के लिए लीगल तरीके से कार्यवाही करे.
डिजिटल युग में नियमाधीन हों पॉलिटिकल कैंपेन्स –
कमेटी की राय है कि वर्तमान के डिजिटल युग में पॉलिटिकल
कैंपेन्स की तकनीकों में बदलाव लाने की जरूरत है, जिसके लिए इलेक्ट्रोरल लॉ को
अपडेट करना पड़ेगा. जिसके अंतर्गत –
- राजनीतिक प्रचार के लिए एक पब्लिक रजिस्टर बनाया जाये, ताकि
सभी लोग इससे संबंधित मैसेज के बारे में जान सकें.
- सभी ऑनलाइन पॉलिटिकल एड्स के साथ यह जानकारी दी जानी चाहिए कि उस
ऐड की जिम्मेदारी कौन लेगा.
- चुनावों में द्वेष भावना रखने वाले लोगों द्वारा किये जा
रहे हस्तक्षेप की जिम्मेदारी सोशल मीडिया साइट्स द्वारा ली जानी चाहिए.
- किसी संस्था द्वारा चुनावों में धांधली किये
जाने पर लगने वाले दंड को बढ़ाकर अधिकतम 20,000 पाउंड से संस्था के सालाना टर्नओवर तक किया जाना चाहिए.
सोशल नेटवर्क सिक्योरिटी की हो जांच –
कमेटी के अनुसार, प्रतियोगिता एवं मार्केट्स
अथॉरिटी जैसे स्वतंत्र संगठनों द्वारा सोशल नेटवर्कस की जांच की जानी चाहिए.
सुरक्षा के संबंध में सोशल नेटवर्कस द्वारा प्रयोग की जा रही प्रकिया व प्रणाली की
जानकारी सरकारी प्रबंधक के पास उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे यह निश्चित किया जा सके
कि सोशल साइट्स का संचालन ठीक प्रकार से किया जा रहा है.
इसके अलावा कमेटी ने कहा कि फेसबुक और ट्वीटर
जैसी सोशल साइट्स पर बने फेक अकाउंट्स न सिर्फ यूजर्स के अनुभवों को प्रभावित करते
हैं, बल्कि उन विज्ञापनदाताओं को भी धोखा देते हैं, जो कि उन अकाउंट्स को ऐड के
पैसे दे रहे हैं जो कि वास्तविक यूजर्स द्वारा चलाये ही नहीं जा रहे.
डिजिटल एजुकेशन के लिए टेक कंपनियों से लिया
जाये टैक्स -
सोशल मीडिया साइट्स पर कठोर नियम लागू करने के
लिए इलेक्टोरल कमीशन और इंफार्मेशन कमीशनर्स ऑफिस जैसी संस्थाओं को ज्यादा मेहनत
करनी पड़ेगी. इलेक्टोरल
कमीशन ने कमेटी के सुझावों पर त्वरित क्रियान्वन करने का आश्वासन भी दिया.

कमेटी का सुझाव है कि टेक कंपनियों पर टैक्स
लगाया जाये, जिसके कुछ पैसों से रेगुलेटर्स की अतिरिक्त जिम्मेदारियों को फंड किया
जाये तथा बचे हुए पैसे स्कूलों में डिजिटल एजुकेशन दिलाने और जागरूकता अभियान
चलाने में खर्च किये जायें, ताकि लोग फेक और गलत खबरों की आसानी से पहचान कर
सकें.
"कमेटी का कहना है कि रीडिंग, राइटिंग और मैथ्स के साथ- साथ
डिजिटल साक्षरता को शिक्षा का चौथा स्तम्भ माना जाना चाहिए.”
डिजिटल विशेषज्ञों ने रखे अपने विचार -
जांच के दौरान 61 गवाहों से एकत्रित किये गये
सबूतों को भी कमेटी ने संक्षेप में पेश किया, जिसे पिछले वर्ष सितम्बर में लांच
किया गया था. जिसमें कैंब्रिज एनालिटिका
का खुलासा करने वाले क्रिसटोफर वाइली और कैंब्रिज एनालिटिका के चीफ एग्जीक्यूटिव
अलेक्जेंडर निक्स भी शामिल हैं.
राजनीति एवं मीडिया पर लिखी पुस्तक “कंट्रोल,
ऑल्ट, डिलीट : हाव पॉलिटिक्स एंड द मीडिया क्रश्ड आवर डेमोक्रेसी” के लेखक टॉम
बाल्डविन भी राजनीति में सोशल
मीडिया की भूमिका को खतरा मानते हैं.
फैक्ट
चेकिंग चैरिटी फुल फैक्ट के हेड विल मॉय ने भी इस विषय पर अपनी राय रखते हुए
कहा कि,
“इस समय पूरे विश्व पर फेक न्यूज हावी हो रही है और इस पर कुछ सरकारों की
प्रतिक्रिया काफी भयावह है. सांसदों को यह स्वीकार करना चाहिए कि एक स्वतंत्र समाज
के रूप में खड़ा होना तथा बोलने की स्वतंत्रता के महत्व को समझना भी आवश्यक है. राजनीतिक
प्रचार के संबंध में बने नियम अब पुराने हो चुके हैं, क्योंकि वह ऑनलाइन काम नहीं
कर रहे. इसलिए विज्ञापन कहां से आ रहे हैं, इस संबंध में पार्दशिता होनी चाहिए.”
वहीं थिंक टैंक डेमन्स
के हेड जेमी बर्टलेट के अनुसार,
“यह रिपोर्ट चुनावों की लांग टर्म इंटिग्रिटी
के संबंध में है ताकि लोगों को यह भरोसा दिलाया हो सके कि उन्हें सही जानकारी मिल
रही है. उन्हें डर है कि ब्रेक्सिट डिबेट इस मुद्दे से ध्यान हटा सकती है.”

हालाँकि कमेटी की फाइनल रिपोर्ट अभी भी आना बाकी
है, जिसके इस साल के अंत तक आने के आसार हैं. तब तक यह चिंतन योग्य होगा कि इस
मुद्दे पर फेसबुक और ट्वीटर द्वारा कौन से कड़े कदम उठाए जा रहे हैं और साथ ही विभिन्न
राष्ट्रों के अंतर्गत अपनी लोकतांत्रिक संप्रभुता को बनाए रखने के प्रयास कितने कारगार
हैं?
संपादकीय विशेष - भारत में भी लोकसभा चुनावों की तैयारी जोरों पर है, जाहिर है प्रत्येक राजनीतिक दल क्षमतानुसार इस वर्चस्व की लडाई में विजय पाने के लिए प्रयासरत है. परन्तु यहां राजनीतिक दलों से अधिक प्रयास आम जन को करने होंगे, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर की लुभावनी दुनिया से बाहर निकलकर अपने जन प्रतिनिधियों को उनकी योग्यता और नियत के आधार पर चुनना होगा, तभी देश विदेशी तकनीक से बचा रह सकता है और लोकतंत्र का स्पष्ट स्वरुप उजागर हो सकता है. आगामी चुनावों में आपकी सार्थक भूमिका क्या होनी चाहिए, इसके लिए आप हमारे ई-सत्याग्रह अभियान से जुड़ सकते हैं. अग्रलिखित लिंक पर जाकर विस्तृत जानकारी प्राप्त करें.
http://esatyagraha.org/
By
Mrinalini Sharma Contributors
Deepika Chaudhary 89
प्रजातंत्र के वास्तविक स्वरुप का अवलोकन करते हुए जनता की सर्वाधिक अहम और निर्णायक भूमिका की जो संकल्पना भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन द्वारा की गयी थी, वह सर्वथा उचित होते हुए भी विगत कुछ समय से आधुनिक टेक्नोलॉजी और नव संचार मीडिया के उपागमों की भेंट चढ़ रही है. अमेरिकी चुनावों और ब्रेक्सिट जनमत-संग्रहण में जिस प्रकार फेसबुक को माध्यम बनाकर, संभावित रुसी विज्ञापनों के चलते मतदाताओं की राय में जोड़-तोड़ करने का प्रयास किया गया..उसने वैश्विक प्रजातंत्र की प्राचीनतम गरिमा को ही संकट में ला कर खड़ा कर दिया.
लोकतंत्र, यानि लोगों का तंत्र, चंद हाथों की कठपुतली बनकर रह गया तथा फेसबुक- व्हाट्सएप खेलते खेलते अनगिनत उपयोगकर्ता अपने बहुमूल्य मत की सार्वभौमिकता को कब- कैसे कुछ पूंजीवादी लोभी कंपनियों के हाथों बेच बैठे..वे समझ भी नहीं सके. दावानल की भांति विस्तृत यह मुद्दा इतना ज्वलनशील है कि इसका ताप विश्व भर के लोकतांत्रिक देशों में महसूस किया जा रहा है. अमेरिका, ब्रिटेन, भारत इत्यादि देशों में प्रत्यक्ष तो अन्य देशों में परोक्ष रूप से ही सही, परन्तु फेसबुक की भूमिका पर प्रश्नचिंह खड़े होने लगे हैं. हाल ही में यूके की संसद में भी यह मुद्दा उठाया गया, जिसकी विस्तृत जानकारी अग्रलिखित है.
जाने ब्रिटिश सांसदों का दूरगामी मंतव्य -
यूके की पार्लियामेंट्री कमेटी ने चेतावनी दी है कि फेक न्यूज से वोटर्स को प्रभावित करने और उनके डाटा से छेड़छाड़ करने की वजह से यूके को प्रजातांत्रिक संकट का सामना करना पड़ सकता है. कैम्ब्रिज एनालिटिका डाटा स्कैंडल से जुड़ी फेक न्यूज और सूचनाओं की डिजिटल, कल्चर, मीडिया एंड स्पोर्टस कमेटी जांच कर रही है. टेक्नॉलजी और सोशल मीडिया पर फेक खबरें लोगों को किस तरह से प्रभावित करती हैं, इस विषय पर हुई जांच के एक महिने बाद ब्रिटिश सांसद ने एक रिपोर्ट पेश की.
डिजिटल, कल्चर, मीडिया एंड स्पोर्टस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में अत्याधिक पक्षपाती व्यूज के जरिये लोगों की राय और समझ को प्रभावित करने सम्बन्धी मुद्दे पर विशेष ध्यान देने पर जोर दिया है, जो वोटिंग प्लान्स को प्रभावित करने के लिए लोगों के डर के साथ खेलता है. जांच कमेटी की यह रिपोर्ट पब्लिक होने से पहले ही लीक हो गई थी. जिसका कारण ब्रेक्सिट कैंपेन ग्रुप वोट लीव के डायरेक्टर ‘डॉमिनिक कंमिंग्स’ द्वारा यह रिपोर्ट दो दिन पहले ही अपने निजी ब्लॉग में पब्लिश करना था. जिसके लिए उन्हें समन भेजा गया और वोट लीव कैंपेन से जुड़े आरोपों पर जबाव भी मांगा गया, लेकिन उन्होंने इसे नकारते हुए इसे ‘फेक न्यूज’ करार दिया.
कॉमन सीएमएस कमेटी की सदस्या जो स्टीवन ने ट्वीट किया कि,
कुछ मुख्य मुद्दे जिनके माध्यम से यह साबित किया जा सकता है कि फेक खबरों द्वारा ब्रेक्सिट चुनाव प्रक्रिया पर प्रभाव डाला गया, वे इस प्रकार हैं..
कॉमन सीएमएस कमेटी के अनुसार, “जांच के दौरान फेसबुक ने हमें उसकी कंपनी की सूचना निकालने से रोकने का प्रयास किया. फेसबुक को लगता है यदि वह समस्या से जुड़ी सूचना शेयर नहीं करेगा तो समस्या दूर हो जायेगी. वहीं इस मामले में ऐसे गवाह पेश किये गये, जो कि कमेटी के सवालों का पूरी तरह से जबाव देने में समर्थ नहीं थे. इसलिए कमेटी फेसबुक चीफ मार्क जुकरबर्ग से दोबारा सबूत की मांग करेगी.”
कॉमन सीएमएस कमेटी की सिफारिश –
डिजिटल, कल्चर, मीडिया एंड स्पोर्टस कमेटी की सिफारिश है कि सोशल मीडिया साइट्स को अपनी साइट्स पर पोस्ट हुए हर प्रकार के अनैतिक कंटेंट की जिम्मेदारी लेनी चाहिए.
फेसबुक और यूट्यूब जैसी सोशल मीडिया की कंपनियां बार- बार यह कहती हैं कि वह एक प्रकाशक न होकर महज एक प्लेटफार्म हैं और वह अपनी साइट्स पर पोस्ट होने वाले किसी भी प्रकार के कंटेंट के लिए जिम्मेदार नहीं हैं.
इस पर जांच कमेटी ने सुझाव दिया है कि सोशल मीडिया कंपनी सिर्फ यह दावा करके खुद को नहीं बचा सकतीं. वह एक ऐसी नयी प्रकार की टेक कम्पनी का निर्माण करें जो कि प्लेटफार्म और प्रकाशक के बीच में मध्यस्थ का काम करे तथा यह टेक कंपनी अपने प्लेटफार्म पर लिखे गये हर प्रकार के अनैतिक और असंवैधानिक कटेंट के लिए लीगल तरीके से कार्यवाही करे.
डिजिटल युग में नियमाधीन हों पॉलिटिकल कैंपेन्स –
कमेटी की राय है कि वर्तमान के डिजिटल युग में पॉलिटिकल कैंपेन्स की तकनीकों में बदलाव लाने की जरूरत है, जिसके लिए इलेक्ट्रोरल लॉ को अपडेट करना पड़ेगा. जिसके अंतर्गत –
सोशल नेटवर्क सिक्योरिटी की हो जांच –
कमेटी के अनुसार, प्रतियोगिता एवं मार्केट्स अथॉरिटी जैसे स्वतंत्र संगठनों द्वारा सोशल नेटवर्कस की जांच की जानी चाहिए. सुरक्षा के संबंध में सोशल नेटवर्कस द्वारा प्रयोग की जा रही प्रकिया व प्रणाली की जानकारी सरकारी प्रबंधक के पास उपलब्ध होनी चाहिए, जिससे यह निश्चित किया जा सके कि सोशल साइट्स का संचालन ठीक प्रकार से किया जा रहा है.
इसके अलावा कमेटी ने कहा कि फेसबुक और ट्वीटर जैसी सोशल साइट्स पर बने फेक अकाउंट्स न सिर्फ यूजर्स के अनुभवों को प्रभावित करते हैं, बल्कि उन विज्ञापनदाताओं को भी धोखा देते हैं, जो कि उन अकाउंट्स को ऐड के पैसे दे रहे हैं जो कि वास्तविक यूजर्स द्वारा चलाये ही नहीं जा रहे.
डिजिटल एजुकेशन के लिए टेक कंपनियों से लिया जाये टैक्स -
सोशल मीडिया साइट्स पर कठोर नियम लागू करने के लिए इलेक्टोरल कमीशन और इंफार्मेशन कमीशनर्स ऑफिस जैसी संस्थाओं को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी. इलेक्टोरल कमीशन ने कमेटी के सुझावों पर त्वरित क्रियान्वन करने का आश्वासन भी दिया.
कमेटी का सुझाव है कि टेक कंपनियों पर टैक्स लगाया जाये, जिसके कुछ पैसों से रेगुलेटर्स की अतिरिक्त जिम्मेदारियों को फंड किया जाये तथा बचे हुए पैसे स्कूलों में डिजिटल एजुकेशन दिलाने और जागरूकता अभियान चलाने में खर्च किये जायें, ताकि लोग फेक और गलत खबरों की आसानी से पहचान कर सकें.
डिजिटल विशेषज्ञों ने रखे अपने विचार -
जांच के दौरान 61 गवाहों से एकत्रित किये गये सबूतों को भी कमेटी ने संक्षेप में पेश किया, जिसे पिछले वर्ष सितम्बर में लांच किया गया था. जिसमें कैंब्रिज एनालिटिका का खुलासा करने वाले क्रिसटोफर वाइली और कैंब्रिज एनालिटिका के चीफ एग्जीक्यूटिव अलेक्जेंडर निक्स भी शामिल हैं.
राजनीति एवं मीडिया पर लिखी पुस्तक “कंट्रोल, ऑल्ट, डिलीट : हाव पॉलिटिक्स एंड द मीडिया क्रश्ड आवर डेमोक्रेसी” के लेखक टॉम बाल्डविन भी राजनीति में सोशल मीडिया की भूमिका को खतरा मानते हैं.
फैक्ट चेकिंग चैरिटी फुल फैक्ट के हेड विल मॉय ने भी इस विषय पर अपनी राय रखते हुए कहा कि,
वहीं थिंक टैंक डेमन्स के हेड जेमी बर्टलेट के अनुसार,
हालाँकि कमेटी की फाइनल रिपोर्ट अभी भी आना बाकी है, जिसके इस साल के अंत तक आने के आसार हैं. तब तक यह चिंतन योग्य होगा कि इस मुद्दे पर फेसबुक और ट्वीटर द्वारा कौन से कड़े कदम उठाए जा रहे हैं और साथ ही विभिन्न राष्ट्रों के अंतर्गत अपनी लोकतांत्रिक संप्रभुता को बनाए रखने के प्रयास कितने कारगार हैं?