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Interview with Social activist Ashok Shankaram over Lucknow high court's pond encroachment caseप्रशन: आप और आपकी संस्था कब से जल स्त्रोतों के संरक्षण

LUCKNOW HIGH COURT POND ENCROACHMENT CASE- A RESEARCH

LUCKNOW HIGH COURT POND ENCROACHMENT CASE- A RESEARCH An Interview with Janadhikaar Social Activist Ashok Shankaram

ByAnant Srivastava Anant Srivastava   120

प्रशन: आप और आपकी संस्था कब से जल स्त्रोतों के संरक्षण का काम कर रही है?उत्तर: जी मैं और मेरे सहियोग
प्रशन: आप और आपकी संस्था कब से जल स्त्रोतों के संरक्षण का काम कर रही है?
उत्तर: जी मैं और मेरे सहियोगी नीरज पांडेय जो की मेरी संस्था 'जनाधिकार' का हिस्सा है, 2006  से नदियों, तालाबो, झीलों आदि को बचने और उनका मूल रूप बनाये रखने के लिए उनपर हो रहे अवैध अतिक्रमण के लिए जनजागरण के साथ साथ राजस्व विभाग और सरकार से लड़ रहे है . 
प्रशन: आप तालाबो पे हो रहे अतिक्रमण के ऊपर सरकार और लखनऊ विकास प्राधिकरण के रुख के बारे मे क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर: पिछले दशक मे जितनी भी सरकार आयी उन्होंने कल्याणकारी राज्य के बजाये प्रॉपर्टी डीलर्स के तरह काम किया और अपने पैसा बनाने के धंधे को सुचारू ढंग से चलने के लिए विकास प्राधिकरणों का गठन किया. विकास प्राधिकरण के अधिकाँश अधिकारियों ने सिर्फ ब्रष्टाचार और पैसा कमाने को बढ़ावा दिया है. और जब हम इन तालाबी बिल्डर्स पे ज़ोर बना रहे थे तो विकास प्राधिकरण ने आसान तरीका निकाला और हाई कोर्ट को वो ज़मीन बेच दी जिसमे कुछ हिस्सा तालाब का था. अब उन्होंने उच्च न्यायालय को भी इसमें भागीदार बना लिया.
प्रशन: आपको कब पता चला के हाई कोर्ट की नयी ज़मीन मे भी तालाब का हिस्सा है ?
उत्तर: जी मुझे पहले ज्ञात नहीं था के हाई कोर्ट की नयी बिल्डिंग भी तालाब पे बन रही है. मैं तो तालाबो पे बानी बिल्डिंग्स के खिलाफ पीआईएल दायर कर रहा था. इस बात का खुलासा तो नगर निगम के दस्तावेज़ों से हुआ. मैं तो 2006 से तालाब अतिक्रमण को कोर्ट मैं चुनौती देता आ रहा हूँ और जब इसके बारे मैं पता चला तो वर्ष 2013 मे मैंने इसकी पीआईएल दायर की .
प्रशन: आपके याचिका डालने के बाद प्राधिकरण का कैसा रवैया रहा ?
उत्तर: जी उन्हें प्रतिशपथ पत्र दाखिल करने के लिए 2 महीने वक़्त दिया गया था पर 34 महीने के बाद भी प्रतिशपथ पत्र दाखिल नहीं हुआ. वो भी यही इंतज़ार कर रहे है के हाई कोर्ट बन के तैयार हो जाये फिर देखा जाएगा इसलिए याचिका पे तारीख पे तारीख बढ़ती रही .
प्रशन: आपने इस सन्दर्भ मे और क्या किया ?
उत्तर: स्थिति और पूरे केस से अवगत करने के लिए मैंने मुख्या न्यायाधीश और राष्ट्रपति को अधिवक्ता के माध्यम से पत्र भेजा और उसमे ये भी दरख्वास्त की कि कंसंट्रेशन रोक जाये और उद्धघाटन न किया जाये. इसके पूर्व भी दिनांक 27 .4 .2014 को उच्छ न्यायालय के महानिबंधक को पत्र लिख कर जानकारी दी और मुख्या न्यायदीश या उनके द्वारा नामित व्यक्ति के सामने प्रकरण्ड रखने का समय माँगा जिसपे कोई कारवाही नहीं हुई और वो लगातार जवाब देने से बचते रहे. और सम्पूर्ण स्थिति जानते हुए भी मुख्य न्यायाधीश मोहोदय 19  मार्च 2016  को इस आधे अधूरे भवन का उद्धघाटन कर गए. जब उच्च न्यायालय से भी निराश हाँथ लगी तो हमने प्रार्थना पत्र दिया कि उच्चतम न्यायलय के परिप्रेक्ष मे हमारी याचिका नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ट्रांसफर कर दी जाये. 
प्रशन: तो अब आपको क्या लगता है याचिका ट्रांसफर कि जाएगी ?
उत्तर: देखिये उच्छ न्यायलय से अब उम्मीद नहीं  है क्योंकि वो खुद उस कृत्य के लाभारती है जिसके विरुद्ध याचिका दायर है . और उसका निर्माण हमारी याचिका के बाद भी नहीं रोक गया. अब वो इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि उसे इस बात कि जानकारी नहीं थी कि एलडीए ने उसे तालाब वाली ज़मीन बेच दी . अब या तो उच्चतम न्यायलय हमारी याचिका को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल स्थानांतरित करे या उच्चतम न्यायालय खुद उसपे फैसला सुनाये.
प्रशन: आपको को क्या लगता है के अगर फैसला आपके पक्ष मे आया तो क्या उच्च न्यायालय कि बिल्डिंग जिसकी लागत 1500  करोड़ रूपए बताई जा रही है, क्या उससे ध्वस्त किया जाएगा ?
उत्तर: बिलकुल किया जाना चाहिए. जब कैम्पा कोला सोसाइटी और आदर्श सोसाइटी कि वर्षो पुरानी बिल्डिंग्स को गिराया जा सकता है जिसमे लोग रह रहे थे फिर तो इस इमारत मे अभी काम भी नही शुरू हुआ है. अब तो ये देखना है के न्यायालयों के लिए अपने 1500 करोड़ कि इमारत ज्यादा मायने रखती है या उन गरीबो के तालाब पे बने घर जिनके लिए 15000 रूपए  भी सरकार के 1500 करोड़ से काम नहीं होते. जहाँ एक ओर आम जनता के लिए तालाब पे निर्माण करने कि मनाही है और उनको ढहा दिया जाता है वहीँ इस ओर देखना है के इनका न्याय सबके लिए बराबर होता है.
Team-BBI

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