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समग्र क्रान्ति के पुरोधाः लोकनायक जय प्रकाश नारायण

भारतीय त्यौहार एवं संस्कृति.

भारतीय त्यौहार एवं संस्कृति. भारत के गौरवान्वित इतिहास में योगदान अंकित करने वाले लोकनेता एवं सेनानी

ByDr. Dharmendra Singh Katiyar Dr. Dharmendra Singh Katiyar   {{descmodel.currdesc.readstats }}

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समग्र क्रान्ति के पुरोधाः लोकनायक जय प्रकाश नारायण-

भारत में समाजवादी आन्दोलन के लोकप्रिय नेता सन् 1942 के आन्दोलन के नायक, आपातकाल के बाद केन्द्र में बनी सरकार के संस्थापक महान राष्ट्रवादी एवं भारत में समाजवादी विचारधारा के प्रचारक जय प्रकाश जी का जन्म 1902 में हुआ था। इनके विचारों पर पाश्चात्य बुद्धिजीवियों का प्रभाव पड़ा था, इसका परिणाम यह हुआ कि उनके विचार मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हो गये। परन्तु उन्हें रूसी कान्ति नहीं भायी। वे साम्यवादियों के निकट होने पर भी हिंसात्मक कार्यों और बर्बरता को पसन्द नहीं करते थे।

उन्होंने तिब्बत के प्रश्न पर मानवीयकरण अपनाया और साम्यवादी चीन की आलोचना की। इसके अतिरिक्त वे नैतिक चेतना की ओर उन्मुख होने के कारण भी साम्यवादियों से नाराज रहने लगे।

लोक नायक जय प्रकाश नारायण ने 1934 में भारतीय कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना में अपना सक्रिय सहयोग दिया। एक क्रांतिकारी के रूप में जय प्रकाश स्वतन्त्र आन्दोलन में कार्य करते रहे तथा उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। महात्मा गाँधी, जय प्रकाश के क्रांतिकारी विचारों और राष्ट्रीय आन्दोलन में उनके समर्पण भाव से इतना प्रभावित हुए कि वर्ष 1946 में उन्हें कांग्रेस की अध्यक्षता हेतु अपनी तरफ से चुना.. किन्तु कांग्रेस कार्यकारिणी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

महात्मा गाँधी ने कहा था कि –

जय प्रकाश नारायण कोई साधारण कार्यकर्ता नहीं हैं। वे समाजवाद के अधिकारी ज्ञाता हैं। यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी समाजवाद के बारे में वे जो नहीं जानते, भारत में दूसरा कोई भी नहीं जानता।

समाजवाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए जयप्रकाश नारायण जी ने कहा कि यह 'वाद' राष्ट्र के सामाजिक एवं आर्थिक निर्माण का सम्पूर्ण सिद्धान्त है। आज आवश्यकता है कि समाजवादी पद्धति को अपना कर एक ऐसी प्रणाली अपनायी जाये जो संतुलन कायम कर सके।

इसके लिए उन्होंने सामाजीकरण की वकालत की। वे चाहते थे कि जनता को विभिन्न प्रकार के शोषणों से मुक्ति मिले। इसलिए वे हमेशा आर्थिक व सामाजिक शोषण के विरुद्ध आवाज उठाते रहे।

लोकनायक जनक्रांति के समर्थक थे, उनका विचार था कि सम्पूर्ण कान्ति के द्वारा ही राष्ट्र का पुर्ननिर्माण होगा। उत्पादन के संसाधनों पर एकाधिकार की प्रवृत्ति को भी आपने निन्दनीय माना और कहा कि-

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इसके कारण ही समाज में असमानता बढ़ती है। कुछ लोगों द्वारा एकाधिकार, बहुत से लोगों के लिए शोषण का आधार बनता है। राष्ट्र की सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए सामूहिक स्वामित्व के सिद्धान्त को लागू करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भारी उद्योगों, खनन एवं परिवहन तथा जहाजरानी का राष्ट्रीयकरण करना चाहिए।

भारतीय सभ्यता और संस्कृति से समाजवादी विचारों की निकटता स्थापित करते हुए कहा कि भारत में आवश्यकता से अधिक संग्रह या अधिकार की नीति की आलोचना की गई है। सभी के कल्याण की भावना, मिल-जुल कर रहना, बांट कर खाना इत्यादि सिद्धान्त समाजवाद के तो हैं ही, यह सिद्धान्त भारतीय संस्कृति के अंग भी हैं। यह कहना कि-

समाजवाद पश्चिम की अवधारणा है - अनुचित है, यह वास्तव में भारतीय आदर्श ही है।

किसानों के हितो का संरक्षण व संवर्धन करना जय प्रकाश जी की नीति का एक प्रमुख अंग था। इस संदर्भ में वे भूमिकर में कमी, व्यय को कम करने की नीति अपनाने का विचार रखते थे। उन्होने कहा कि- 

कृषि की मौजूदा दशा ठीक नहीं है। अतः उसे सुविकसित करना चाहिए। कृषि की दयनीय दशा न केवल हमारे देश में है बल्कि सम्पूर्ण एशिया महाद्वीप इससे त्रस्त है। भूमि पर किसान का ही वास्तविक अधिकार है। दशा सुधारने के लिए सहकारी कृषि फार्म बनाये जाने चाहिए एवं बाजारों की उचित व्यवस्था हो।
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यदि राज्य में कृषि को महत्व न दिया गया तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो जायेगी। पिछड़ा हुआ कृषि क्षेत्र यदि और पिछड़ता गया तो आर्थिक असमानता की खाई और चौड़ी हो जायेगी। उन्होंने आचार्य नरेन्द्र देव की भांति सहकारी खेती के विचार का भी प्रतिपादन किया। इसी परम्परा में किसानों के ऋणों की माफी का विचार भी प्रस्तुत किया।

जय प्रकाश जी जब सर्वोदय आन्दोलन में आये तो भू-दान के प्रति उनका दृष्टिकोण किसानों के हितो के प्रति बना रहा। उन्होंने भू-दान आन्दोलन को एक शान्तिपूर्ण क्रांति का सर्वोत्तम साधन माना और उसका समर्थन किया। भूदान में बड़े-बड़े किसानों से आग्रह किया गया कि वे अपनी भूमि से 20 प्रतिशत भूमि गरीबो को दान कर दें।

जय प्रकाश जी आधुनिक लोकतन्त्र को दल विहीन लोकतन्त्र में बदलने की बात कहते थे। उनके अनुसार वर्तमान प्रजातान्त्रिक पद्धति में कई दोष हैं। वे दलगत राजनीति, पद आधारित प्रजातान्त्रिक पद्धति के दोषों का निवारण करने के लिए दल विहीन जनतंत्रात्मक व्यवस्था चाहते थे। दलीय प्रजातन्त्र में निर्वाचन अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। प्रत्येक दल बहुमत पाने के लिए प्रयत्न करता है। ऐसी स्थिति में कभी-कभी व्यक्तिगत चरित्र का हनन होता है। अपने दल को विजेता बनाने के लिए निर्वाचन व्यवस्था भंग की जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि जनता की इच्छा का सही प्रतिबिम्ब सामने नहीं आ पाता है। 

दल विहीन जनतन्त्र की योजना के द्वारा सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना की जा सकती है। इसी क्रम में उन्होंने स्वयं 1954 में “प्रजा सोशलिस्ट पार्टी” से त्यागपत्र दे दिया। उनके राजनीतिक जीवन में आये परिर्वतन के कारण उनका दोहरा व्यक्तित्व सामने आया। एक रूप में वे समाजवादी तथा दूसरे रूप में सर्वोदयी दिखाई दिये।

जयप्रकाश नारायण को युवा शक्ति पर बहुत भरोसा था। सन् 1974 में बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान से उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का उद्घोष किया। आपकी विचारधारा थी कि भारत के नवयुवक राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान देने के लिए आगे आयें।

स्वतंत्रता एवं समानता को मानव के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक मानने वाले जयप्रकाश जी राजनीति एवं आर्थिक समानता के संरक्षण देने वाले विचारक थे। उनके अनुसार स्वतंत्रता का अभाव ही सबसे बड़ा अभाव है। परतंत्रता तो अभिशाप है, मानव के चहुमुखी विकास में स्वतन्त्रता का सबसे ऊंचा स्थान होता है। भारत के संदर्भ में वे स्वतन्त्रता और समानता को बहुत जरूरी मानते थे। वे कहते थे कि-

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भूखे पेट रहना या मरना स्वीकार है, यदि स्वतन्त्रता के बदले में भरपेट भोजन मिले तो मैं भोजन नहीं स्वतन्त्रता चाहूँगा।

उनके अनुसार- 

सर्वोदय आन्दोलन के द्वारा ही मानव को विश्व बन्धुत्व की गरिमा तथा शान्ति का महत्व समझाया जा सकता है।

समाजवाद को सर्वोदय पर आधारित कर कहा कि स्वतन्त्रता तथा समानता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है। यह आन्दोलन संसार की विषम समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है। वे इसे मुक्ति मार्ग का आन्दोलन बताते थे।

सामाजिक संगठनों के बारे में कहा कि –

सामाजिक संगठन जब तक शक्तिशाली नहीं होंगे समाज का विकास नहीं होगा। सर्वोदय के द्वारा सामाजिक संगठन मजबूत बनाकर समाजवाद को इसमें तिरोहित कर देना चाहिए। 

सर्वोदय की भावना में जो विकेन्द्रीकरण का सिद्धान्त है उसे आप अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते थे। इसी आधार पर सत्ता के विकेन्द्रीकरण की माँग करते थे। उनका विकेंद्रीकरण का मुख्य मकसद था ग्राम्य स्वराज की स्थापना करना अर्थात पंचायत व्यवस्था को मजबूत करना। वे मानते थे कि सर्वोदय की भावना का मुख्य आधार तो आत्म त्याग और नैतिकता से बना है। अतः इसे स्वीकार करना सर्वथा उचित है।

मानवता के हितों के बारे में उनका विचार था कि द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् सैनिकवाद की राजनीतिक अव्यवस्था में पुनः विश्व को युद्ध की राह पर चलना पड़ सकता है। उन्होंने कहा कि -

विचारधाराओं में तीखा विरोध वहाँ तक ठीक हैं जहाँ तक तनाव न पनपे। यदि तनाव बढ़ेगा तो युद्ध के बादल भी आयेगे और बरसेंगे।

इस प्रकार आपने विश्व समाज के आदर्श को प्राप्त करने की प्रेरणा दी। उन्होंने तत्कालीन इन्दिरा गांधी सरकार की आपातकाल लगाने जैसी नीतियों की खुलकर आलोचना की और सरकार विरोधी दलों को एक मंच पर ला कर "जनता पार्टी” का गठन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस समय जनता पार्टी चुनाव में जीती और केन्द्र में उनके संरक्षण में सरकार बनीं।

भारत में समाजवादी आन्दोलन के मुख्य संचालकों में जय प्रकाश नारायण का नाम बहुत ही श्रद्धा से लिया जाता है। आपने अपने राजनीतिक जीवन में आर्थिक और सामाजिक समानता का मुद्दा महत्वपूर्ण बना कर उठाया। स्वतन्त्रता के महत्व को जीवन का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य के रूप में स्थापित करने वाले, समाजवादी परम्परा में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए वे साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासकों से लड़ते रहे और सर्वोदयी होकर भारत तथा विश्व के कल्याण का कार्य करते रहे।

जय प्रकाश नारायण अपनी सम्पूर्ण क्रान्ति की धारणा में सामाजिक क्रान्ति, आर्थिक क्रान्ति, राजनीतिक क्रान्ति, शैक्षणिक क्रान्ति, साँस्कृतिक क्रान्ति,  अध्यात्मिक क्रान्ति तथा बौद्धिक क्रान्ति को लाना चाहते थे। इस प्रकार वे समग क्रांति के पुरोधा ही थे।

किडनी, गुर्दे की खराबी के कारण उनकी मृत्यु 8 अक्टूबर, 1979 में हुई। उनकी समग्र समाजवादी क्रान्ति, विचार, दर्शन एवं विकासपरक सोच को यह देश कभी नहीं भुला सकता है।

इन्हीं शब्दों के साथ।

जय हिन्द।

प्रौढ़ सतत शिक्षा एवं प्रसार विभाग,

छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर

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