नोटबंदी तो हो गई रैलिबंदी कब?
चुनाव सुधार की बेहद जरूरत
चुनाव में कालेधन का खेल
उम्मीदवारी के लिए करोड़ो की बोली
चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के लिए तय कर रखी है सीमा
रोज होते लाखों खर्च मगर दिखाया जाता बेहद कम
चुनाव प्रक्रिया में बदलाव की शुरुआत उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव से
मंहगे चुनाव देश के विकास में बाधक
सोशल मीडिया के द्वारा भी बेहिसाब खर्चा
उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये जाने की जरुरत
किसी भी पार्टी को चुनाव में अपने उम्मीदवार को चुनने के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था बनाने की जरुरत है. साथ ही इस प्रक्रिया को ऐसे समय में पूर्ण करने की आवश्यकता है जिससे जनमेला और उम्मीदवार के चुनाव प्रक्रिया में एक अच्छा खासा अंतराल हो जिससे किसी भी विवाद का निपटारा उचित समय पर हो सके. व्यक्तिगत पार्टियां उम्मीदवारों के चयन प्रक्रिया को परिभाषित करने के लिए स्वतंत्र हैं और इसे सार्वजनिक डोमेन में प्रकाशित करने की जरुरत है. उमीदवारों का चयन के लिए जो भी संभावित उम्मीदवारों की सूची हो वह सार्वजनिक समीक्षा के लिए उपलब्ध होनी चाहिए.‘जनमेला’ से बदल जाएगा महंगे चुनाव का चलन
जनमेला से होगा प्रत्याशियों को परखने का मौका
हमें यहां यह भी समझना होगा कि इससे तो चुनाव करवाने वाली संस्था पर ही बोझ बढ़ेगा तो उसके लिए भी हमारा प्रस्ताव है कि चुनावी चंदा किसी पार्टी विशेष को ना दे कर इसे ‘जनमेला’ फंड्स में जमा करवाया जाए, जिससे इन्हें सुचारू ढंग से चलाया जा सके.
जनमेला से हो सकता है कई समस्याओं का निदान
- इस तरह जनसभाओं और रैलियों पर प्रतिबन्ध लगाने से ना ही इससे सिर्फ उम्मीदवारों द्वारा बेहिसाब पैसा खर्च करने पर रोक लगेगी बल्कि कालेधन को भी आसानी से खपाना मुश्किल होगा.
- प्रधानमंत्री और ऐसे ही स्टार प्रचारक किसी भी कमज़ोर प्रत्याशी को उससे बेहतर प्रत्याशी पर भारी बना देते हैं , जनमेला इस प्रथा को समाप्त करेगा, प्रत्याशी अपने बल बूते , कौशल और मेरिट के आधार पर ही आगे बढ़ पाएगा. प्रधानमंत्री इत्यादि को अपने मूल कार्य पर ध्यान देने का मौका मिलेगा ना की चुनाव प्रचार करते रहने का.
- साथ ही इससे आम लोगों को भी अपनी दावेदारी पेश करने का मौका मिल पायेगा. इससे साफ-सुथरी राजनीति को तो बढ़ावा मिलेगा ही साथ में हम जिसे लोकतंत्र कहते हैं उसके असल मतलब को भी बल मिल सकेगा.
- उपर बताई गई समस्यां जैसे जाम, शोर, गन्दगी आदि जैसी समस्याओं से भी निदान मिल सकेगा. इससे आम जनता और प्रत्याशियों के बीच का अंतर कम होगा और जुड़ाव की भावना पैदा होगी.
- चुनावों में उद्योगपतियों का दखल एक हद तक कम हो सकेगा. धीरे-धीरे इसमें कुछ और बदलाव करके भारत के चुनावी प्रक्रिया को हम और भी बेहतर बना सकते हैं.
- न्यूनतम ख़र्चे के चुनाव से पैसा सही कार्यों, परियोजनाओं और कार्य के परिणामों पर केंद्रित हो जाएगा, जिनका हिसाब मानकों के आधार पर देना होगा न कि चुनाव में हज़ारों करोड़ खर्च कर सेल्फी खिंचवा वोट लेने में.
जनमेला की अवधारणा - एक लाइव रिसर्च (आइये विषय की गंभीरता को समझते हुए इसको और गहनता से समझने का प्रयास किया जाये)
भारतीय लोकतंत्र, वोटर सहमति निर्माण – वर्तमान प्रक्रिया, समस्याएं और सुधार की आवश्यकता
पृष्ठभूमि
चुनाव के दौरान बड़ी बड़ी रैलियां और शक्ति प्रदर्शन को सिर्फ समय और पैसों की
बर्बादी ही नहीं माना जाता बल्कि सार्वजनिक जीवन में कालेधन, भ्रष्टाचार और नैतिक पतन का जरिया भी माना जाता है. जो कि संसदीय लोकतांत्रिक
व्यवस्था के लिए एक बड़ा झटका है.
इस अवसर को बिना किसी जिम्मेदारी या नतीजों के विपक्ष के बारे में बयान करने, दावों और वादों का विज्ञापन करके वोट पाने के लिए उपयोग किया जाता है. चुनाव
के समय धनी और सत्ता में बैठे लोग संचार के लगभग हर संभव माध्यम जैसे रैली, नए सोशल और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म या पुराने समाचार आधारित माध्यम को
नियंत्रित करते हैं. बृहत मात्रा में धन का उपयोग, नेताओं की संलिप्तता और कुलीनतंत्र प्रक्रियाएं पूरे चुनावी प्रक्रिया को अपने
अधीन कर लेती हैं.
1. आंशिक सत्य, तथ्य पर हावी होती भावनाएं,गलत समाचार, मीडिया साइबर सेल, डेटा सिक्योरिटी- स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए खतरा
यह शोध उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया, राजनीतिक रैलियां और चुनाव प्रचार पर केंद्रित है. इसमें नियंत्रित मीडिया का गुप्त और अत्यधिक उपयोग और अनियंत्रित डिजिटल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे फेसबुक, ट्विटर, गूगल, व्हाट्सएप आदि शामिल हैं. इसे उप-विषयों में विभाजित किया जा सकता है.
गलत समाचार, सहमति निर्माण, व्यवहार सम्बन्धी और भावनात्मक डेटा, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा
हाल ही में संपन्न हुए चुनावों के दौरान व्यापक रूप से रिपोर्ट किया गया कि राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया के लिए साइबरसेल को नियुक्त कर उसमें बेहिसाब पैसा लगाती है. ट्विटर, गूगल और व्हाट्सएप जैसी प्लेटफार्मों पर जिस तरह से गलत प्रचार-प्रसार किया जाता है वह ना केवल लोकतांत्रिक संस्थानों, सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरनाक है बल्कि नागरिकों के व्यवहार संबंधी डेटा जो विदेशी एजेंसियों के कब्ज़े में चला जाता है वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा है. विदेशी संस्थाएं भारत के इस स्टिमुलस या उन्माद आधारित राजनितिक प्रचार और उस पर प्रतिक्रिया देती आम जनता के भावनात्मक डेटा का इस्तेमाल भारत को बड़ी ही क्रूरता के साथ अस्थिर करने और अपने सहभागियों के निजी लाभ के लिए कर सकती हैं. इस शोध से भारत में उपलब्ध कानूनी ढांचे और नीतिगत बदलावों के प्रस्ताव पर एक रिपोर्ट तैयार करने की उम्मीद है.
सोशल मीडिया, बोलने की स्वतंत्रता, समानता और व्यापारिक वर्गीकरण
गूगल, ट्विटर, फेसबुक बड़े डिजिटल मार्केटिंग माध्यम है जो की लोगों को निशुल्क सेवाएं प्रदान
करता है जैसे कि सर्च और दूसरों से बातचीत करने का मौका देना. इसके बदले यह अपने
कुछ भुगतान आधारित ग्राहकों के विज्ञापन कंप्यूटर आधारित प्रोग्राम द्वारा आम जन तक
पहुंचाता है. यह एक निजी लाभ आधारित एजेंडे के तहत यह काम करता है.
इसी विज्ञापन माध्यम का राजनीतिक पार्टियों द्वारा भरपूर दुरुपयोग किया जाता
है और अगर बात रखने की स्वतंत्रता के तहत आपने उन पार्टियों के विरोध में कुछ कहा
तो उनके द्वारा आपका ट्रोल किया जाता है.
क्या
इस प्रकार से इन संगठनों को "सोशल मीडिया"
के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है? और इन माध्यमों पर "भाषण, तर्क की स्वतंत्रता" के साथ "समान अवसर" कहां मान्य है? "क्या अपनी बात कहने की स्वतंत्रता और
सामान अधिकार का तर्क व्याहारिक रूप में ठीक है, अगर गौर से देखें तो शेर और हिरन एक मैदान में ऊपरी तौर पर ज़रूर सामान
अवसर इत्यादि की बात करते हैं, मग़र व्यवहारिकता कितनी है? ये जानते हुए की डिजिटल मार्केटिंग एक बेहद महंगी और जटिल प्रक्रिया है. क्या इन "सीधे
सादे" आम नागरिक और "मेगा इन्फ्लुएंसर" एकाउंट्स, पेज,
ग्रुप इत्यादि के लिए ज़िम्मेदारी, कानून और कार्य करने की प्रक्रिया भी अलग़ होनी चाहिए?
इस शोध में राजनीतिज्ञों, निर्वाचित अधिकारियों और सहबद्ध एजेंसियों
जैसे बड़े प्रभावी या इन्फ़्लुएन्सर लोगों को ऐसे प्लेटफार्मों का इस्तेमाल करने की
अनुमति किसी भी तरह के राजनितिक प्रचार के लिए रोकने का प्रस्ताव दिया गया है?
इस प्रतिबन्ध को तब तक बढ़ा देना चाहिए जब तक यह "सोशल मीडिया" प्लेटफार्म
ऐसे बड़े प्रभावकारी जैसे की नेता, सरकारी एजेंसी और सहयोगियों संगठनों द्वारा किये
गए प्रचार जैसे सोशल प्रोफाइल या पेज, हैशटैग, अत्यधिक प्रसारित/वायरल वीडियो, संदेश और समाचार आदि को
1.
पूर्ण अभिलेख शपथ के साथ स्टोर नहीं करते,
इसको सक्रिय खुलासे और सूचना के अधिकार के अंतर्गत नहीं लाते.
2.
डेटा की उपलब्धता और पूर्ण नियंत्रण
स्थानीय सिविल सोसाइटी के पास निहित इसे सूचना के अधिकार और स्वैछिक रिपोर्टिंग के
अंतर्गत नहीं लाते. डेटा पर कभी भी विदेशी कानूनी इकाई या
व्यक्ति का स्वामित्व या पहुँच नहीं होना चाहिए.
यह शोध इस पहलू पर विचार करेगा और इस अवधारणा की जांच करेगा कि"जनमेला" को स्थानीय स्वयं सेवकों द्वारा किस हद तक चलाया जा सकता है. जिससे प्रचार की
इस ज़ारी प्रक्रिया से छुटकारा पाया जा सके.
2. चुनाव अभियान की मौजूदा आउटबाउंड (बहिर्मुखी) प्रक्रिया बनाम प्रस्तावित जनमेला का इनबाउंड (अंतर्मुखी) प्रक्रिया – अभियान, तर्क वितर्क के लिए स्वतंत्रता
वर्तमान समय में आउटबाउंड प्रक्रिया, रैलियों, घर-घर प्रचार अभियान, लगातार मीडिया अभियान, सिर्फ आर्थिक रूप से मज़बूत, साधनों से संपन्न प्रत्याशी को फ़ायदा देते हैं. ये माध्यम कुछ बड़े लोग जो तकनीक और इंफ़्रा को ख़रीद सकते हैं के अधीन हैं. ये रिसर्च आज के समय की “महाअधिनायक” या “कल्ट” आधारित राजनीति, उसके कैडर या कार्यकर्त्ता, जन भागीदारी या लोकल जन कौंसिल आधारित चुनाव प्रणाली के विकास पर प्रभाव की जांच करता है.
साथ ही दूसरे मुद्दे पर भी हम विचार करेंगे जैसे खर्च किया गया समय/लगे समय का मूल्य, प्रशासनिक परेशानी, नागरिकों की लागत बनाम "स्टार कैंपेनर्स" द्वारा प्रदान की गई जानकारी. कुछ रैलियों और भाषणों को विश्लेषण के लिए
लिया जा सकता है, जिसमे वक्रपटुता, उन्माद, नकारात्मक
राजनितिक प्रचार, भावनात्मकता बनाम कोई काम की शपत्बद्ध जानकारी या घोषणा.
3. अप्रूवल वोटिंग के द्वारा राजनीतिक दल को उम्मीदवार चुनने की इजाजत
किसी भी पार्टी को चुनाव में अपने उम्मीदवार को चुनने के लिए एक पारदर्शी
व्यवस्था बनाने की जरूरत है. साथ ही इस प्रक्रिया को ऐसे समय में पूर्ण करने की
आवश्यकता है जिससे जनमेला और उम्मीदवार के चुनाव प्रक्रिया में एक अच्छा खासा अंतराल
हो जिससे किसी भी विवाद का निपटारा उचित समय पर हो सके. पार्टियां उम्मीदवारों के
चयन प्रक्रिया को परिभाषित करने के लिए स्वतंत्र हैं और इसे सार्वजनिक रूप में
प्रकाशित करने के लिए बाध्य हों. उमीदवारों का चयन के लिए जो भी संभावित
उम्मीदवारों की सूची हो वह सार्वजनिक समीक्षा के लिए उपलब्ध होनी चाहिए.
4. जनमेला की अवधारणा
यह ‘जनमेला’ उस विधानसभा क्षेत्र में एक उपयुक्त जगह
या मैदान में चुनाव से पहले कुछ दिनों के लिए लगाया जाए. जहां सभी प्रत्याशी
अपने-अपने स्टॉल और एक समान मंच स्थापित कर अपने बारे में लिखित, ऑडियो और दृश्य माध्यमों से जानकारी प्रदान करें तथा ज़िम्मेदारी और जवाबदेही
के साथ अपनी बात और विजन मतदाताओं के सामने पूर्व निर्धारित मानकों के आधार पर रखें.
इन मानकों को चुनाव आयोग, स्थानीय निकायों या संसदीय चर्चा द्वारा
अंतिम रूप दिया जा सकता है.
5. इस तरह के सवाल या मानक के उदाहरण
स्थायी पर्यावरण के बारे में समझ, स्थानीय और वैश्विक संस्कृति पर पकड़, शिक्षा, मौद्रिक, आर्थिक नीति, विशेषज्ञता, झुकाव, प्रशासनिक या सामाजिक अनुभव आदि. उम्मीदवार अपने व्यक्तिगत और पार्टी के विचारधाराओं
के साथ अपने जवाब तैयार कर सकते हैं और आसानी से इसे मतदाताओं के लिए उपलब्ध करा
सकते हैं. शोध का उद्देश्य एक ऐसी सूचि तैयार करना है जो राज्यों के हित के साथ
देश हित के लिए जरुरी हो.
6. मतदाताओं की भूमिका
यहां प्रत्येक
मतदाताओं की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इस जनमेला के प्रति पूर्ण समर्थन
जताएं और अपनी भागीदारी से सही उम्मीदवार का चयन करें.
7. चुनावी फंडिंग
चुनावी फंडिंग को भ्रष्टाचार के एक प्रमुख स्रोत के रूप में उद्धृत किया गया है.
शोधकर्ता को चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी विभिन्न सीमाओं की जांच करनी चाहिए, इन सीमाओं के उल्लंघन करने पर क्या ऐसे अभिनव साधन और पर्याप्त नियम है जिससे
इस उल्लंघन का पाता लगाया जा सके? उदाहरण के लिए, 'Quid Quo Pro' योजनाएं, व्यक्तिगत लाभ के साथ प्रणाली को तोड़ने
के लिए सहबद्ध रिंग.
ऐसी स्थिति से बचने के लिए भारत में कानूनी प्रावधान और सिस्टम क्या है, जहां किसी विदेशी/स्थानीय विज्ञापन आधारित मीडिया प्लेटफॉर्म
या मार्केटिंग एजेंसी का इस्तेमाल विज्ञापन द्वारा सहमति निर्माण के लिए किया जाता
है. आर्थिक सीमा का सीधा उल्लंघन नहीं हो
इसके लिए राजस्व, सहयोगी कंपनियों के माध्यम से विज्ञापन के
तौर पर पारित कराए जाएँ. क्या भारत की संस्थाएं इन सब के लिए तैयार है? क्या हमारे
क़ानून तैयार हैं?
हम ये भी चाहेंगे की चुनावी चंदा किसी पार्टी विशेष को ना दे कर इन्हें जनमेला फंड्स में जमा करवाया जाए, जिससे इन्हें निर्वाचन आयोग, प्रशिक्षित स्वयंसेवकों, नागरिक समाज आदि द्वारा सुचारू ढंग से चलाया जा सके.
अपडेट
चुनाव सुधार की प्रक्रिया के तहत बैलटबॉक्सइंडिया जिस ‘जनमेला’ की अवधारणा को लेकर आगे बढ़ा था उसे हर वर्ग का भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ है. समाज में बौधिक माने जाने वाला शिक्षक वर्ग हो या साहित्यकारों का वर्ग, प्रशासनिक अधिकारी या डॉक्टर, वकील, से लेकर विद्यार्थियों तक में से अधिकांश ने इसे चुनाव सुधार के लिए बेहतर कदम बताया है. यहाँ तक कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने भी जनमेला की अवधारणा के प्रति अपनी सहमती जताई है. समाजवादी पार्टी हो या भाजपा, सीपीआई या सीपीआई-एम यहां तक जनता दल यूनाइटेड से लेकर आम आदमी पार्टी ने भी जनमेला की अवधारणा के प्रति अपनी सहमति जताई है और कहा कि जनमेला जैसी परिकल्पना का स्वागत किया जाना चाहिए. हमने जनमेला की अवधारणा के तहत गहन शोध किया है. साक्षात्कार के माध्यम से, लोगों से बातचीत कर और प्रश्नावली के तहत हमने लोगों से जनमेला से जुड़ी जानकारी इकट्ठी की है. हमने गुणात्मक शोध के द्वारा यह पता करने का प्रयास किया कि समाज जनमेला के बारे में क्या सोचता है. हमने इस बारे में एक डाटा इकट्ठा किया है. प्रश्नावली के माध्यम से हमारे सामने जो निष्कर्ष निकल कर सामने आया है उसका नतीजा अनुमान के मुताबिक ही है.
निष्कर्ष
कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो जनमेला भारतीय चुनाव प्रक्रिया के लिए एक बहुत ही बेहतर कदम साबित हो सकता है. हमारी जो परिकल्पना थी वह अनुमान के मुताबिक ही निकली. अधिकांश लोग जब जनमेला की अवधारणा से सहमत दिखाई देते हैं तो पता चलता है कि अभी की चुनावी प्रक्रिया में एक बेहतर बदलाव लाने की जरूरत है. अधिकांश लोग मानते हैं कि कालेधन का चुनाव में उपयोग होता है तो ऐसे में जरूरत है कि जनमेला जैसी अवधारणा को चुनाव आयोग द्वारा चलन में लाया जाए. राजनीतिक पार्टियों द्वारा भी जब उम्मीदवारों के चयन को लेकर लोगों को यह लगने लगे कि इसमें योग्यता से ज्यादा पैसे को बल दिया जाता है तो वाकई यह सोचनीय है. पहले जो रैली, लाउडस्पीकर अपनी बात रखने का जरिया थे लोगों को चुनाव में अब वह शोर लगने लगे हैं. भले ही कुछ लोग अभी भी मानते हैं कि चुनाव के दौरान ऐसी चीजें होनी चाहिए. लोगों की नज़र में रैलियां सिर्फ चुनिंदा और बड़े उम्मीदवारों के बारे में ही उन्हें सही जानकारी देता है वरना उन्हें रैलियों से कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं होती. नए डिजिटल मीडिया माध्यम और सोशल मीडिया के साथ-साथ मेनस्ट्रीम मीडिया अब ये काम करने लगे हैं, लोगों तक सूचना पहुंचा पाने एक बड़ा माध्यम बनकर उभरे हैं. लोग मानते हैं कि जनमेला उन्हें सही जानकारी या नहीं तो थोड़ी बहुत जानकारी उनके उम्मीदवारों के बारे में दे ही पाएगा. जनमेला के प्रति लोगों ने बहुत हद तक भरोसा जताया है और वह जनमेला के आयोजन में मदद करना चाहते हैं और साथ ही साथ अपने जिले में भी उसका समन्वयन करने को इच्छुक हैं. चुनाव बहुत ही महंगी प्रक्रिया बन चुकी है ऐसे में लोग चाहते हैं कि जनमेला जिसकी अवधारणा की गई है वह चुनाव आयोग द्वारा लाया जाए जिससे कि चुनाव सुधार प्रक्रिया की ओर हम आगे बढ़ सके और हमारा लोकतांत्रिक पर्व फिर से पर्व की तरह मनाया जा सके.