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भारतीय कृषि व्यवस्था : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं भविष्य की योजना

  • भारतीय कृषि व्यवस्था : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं भविष्य की योजना
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कृषि मात्र एक खाद्य पदार्थ उत्पादन प्रणाली नहीं है, अपितु सम्पूर्ण मानवीय अर्थव्यवस्था का आधारभूत स्तंभ है. घुमंतू मानव के जीवन को स्थायित्व देने का सर्वप्रमुख कारक कृषि ही रही है. यह स्वयं में एक सृजन है. एक सम्पूर्ण प्राकृतिक विज्ञान है, सृष्टि को गतियमान बनाए रखने की एक अहम कड़ी या कहें युगों- युगांतर से पोषित हो रही सभ्यताओं का जड़ तत्त्व भी है. मानव जीवन के पृथ्वी पर अस्तित्व से लेकर अब तक कृषि भरण-पोषण का अभिन्न अंग रही है. भारत में कृषि का उद्गम कब, कैसे, क्यों हुआ, इसकी प्रमाणिक पुष्टि करना तो जटिल है, परन्तु पौराणिक साहित्य इस बात का साक्षी रहा है कि भारत में कृषि केवल जीविका का साधन ही नहीं, अपितु ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर की भांति है, उत्सवों एवं पर्वों की प्रतीक है. भारतीय कृषि विभिन्न सभ्यताओं को पोषित करती हुई क्रमिक विकास की प्रक्रिया से फलीभूत होती आई है.

भारत में कृषि व्यवस्था -

कृषि प्रधान देश भारत की लगभग 64.5% जनसंख्या कृषि कार्य में संलग्न है और कुल राष्ट्रीय आय का 27.4% भाग कृषि से होता है. देश के कुल निर्यात में कृषि का योगदान 18% है और कृषि ही एक ऐसा आधार है, जिस पर देश के 5.5 लाख से भी अधिक ग्रामीण जनसंख्या 75% प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी आजीविका प्राप्त करती है. भारत में चावल, गन्ना और तम्बाकू आदि प्रमुख फसलें हैं,  वहीं दूसरी ओर कपास और गेहूं की भी फसलें पैदा की जाती हैं. हमारे देश की भौतिक संरचना, जलवायु और मृदा किस्में ऐसे कारक हैं जो अनेक प्रकार की फसलें पैदा कर सकते हैं. भारतीय कृषि मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर रहती है तथा एक वर्ष के अंतर्गत भारत में मुख्यतः रबी, खरीफ एवं जायद की फसलें रोपित की जाती हैं.

भारतीय कृषि का इतिहास :

भारत में कृषि की गौरवशाली परम्परा रही है, बहुत से पौराणिक ग्रन्थ एवं इतिहासकारों द्वारा किया गया शोध यह दर्शाता है कि देश में सिंधु घाटी सभ्यता के दौर में भी कृषि व्यवस्था अर्थव्यवस्था की रीढ़ हुआ करती थी. विभिन्न कालखंडों का अग्रलिखित अध्ययन इस तथ्य को पुष्ट करता है कि भारत में कृषि पुरातन काल से ही अनवरत की जा रही है :

1. वैदिक कालीन कृषि व्यवस्था –

ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इतिहासविदों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वैदिक काल में बीजवपन, कटाई आदि क्रियाएं की जाती थी, हल, हंसिया, चलनी आदि उपकरणों का चलन था तथा इनके माध्यम से गेहूं, धान, जौ आदि अनेक धान्यों का उत्पादन किया जाता था. चक्रीय परती पद्धति के द्वारा मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने की परम्परा के निर्माण का श्रेय भी प्राचीन कालीन कृषकों को जाता है, रोम्सबर्ग (यूरोपीय वनस्पति विज्ञान के जनक) के अनुसार इस पद्धति को बाद में पाश्चात्य जगत में भी अपनाया गया. विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख श्लोकों में देखा जा सकता है.

“अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान:” (ऋग्वेद- 34-13)

 अर्थात्‌ जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ.

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इसके अतिरिक्त “कृषि पाराशर” के अंतर्गत भी कृषि दर्शन का उल्लेख मिलता है. नारदस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण आदि में भी कृषि के संदर्भ में उल्लेख मिलते हैं. कृषि पाराशर तो विशेष रूप से कृषि की दृष्टि से एक मान्य ग्रंथ माना जाता है, जिसमें कुछ विशेष तथ्यों का दर्शन मिलता है.

“कृषिर्धन्या कृषिर्मेध्या जन्तूनां जीवनं कृषि:” (कृषि पाराशर-श्लोक-7)

 अर्थात्‌ कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है तथा कृषि ही मानव जीवन का आधार है.

प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर 1984 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘वंश से राज्य तक’ में महाभारत के विविध पहलुओं पर अपने विचार व्यक्त किए हैं, जिसमें उन्होंने लिखा है कि..

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 “अर्थव्यवस्था का मेरुदंड पशुपालन और कृषि थी. कृषि भूमि पर कुल का स्वामित्व होता था. अभी निजी स्वामित्व वाले भूखण्डों में कृषि भूमि का विभाजन नहीं हुआ था.”

 2. सिन्धु नदी घाटी कृषि व्यवस्था –

 सिन्धु नदी का  स्थान ऋग्वेद में  एक पुरुष योद्धा का है, इस नदी के पूर्व की कृषि व्यवस्था और इसके पश्चिम की "शेफर्ड" या चरवाहा व्यवस्था ऐतिहासिक किताबों में उल्लेखित हैं. हिन्द की संस्कृति  इसी नदी के पूर्व खेती , प्रकृति के स्वरूपों जैसे अग्नि, सूर्य, वरुण, जल, धरती, जंगल के स्वरूपों और इनके साथ सह अस्तित्व  पर आधारित है.  पुराण युगीन कृषि विकास की सम्पूर्ण जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु सिंधुनदी घाटी सभ्यता पर शोध के दौरान कांठे के पुरावेशों के उत्खनन से इस तथ्य के प्रचुर प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि तकरीबन पांच हजार वर्ष पूर्व कृषि अत्याधिक उन्नत अवस्था में थी. यहां राजस्व का भुगतान अनाज के रूप में किया जाता, यह अनुमान साहित्यकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने मोहनजोदड़ो में उत्खनन से मिले बड़े बड़े कोठारों के आधार पर लगाया है. इसके अतिरिक्त खुदाई में प्राप्त हुए गेहूं एवं जौ के नमूनों से उनके उक्त समय मुख्य फसल के रूप में पाए जाने की भी पुष्टि हुई है. पाए गए गेहूं के दानों की प्रजाति ट्रिटिकम कंपैक्टम (Triticum Compactum) है, जो आज भी पंजाब में खेती में उपयोग किये जाते हैं. इन सभी साक्ष्यों से यह संकेत मिलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता में कृषि जीविका का मुख्य स्तंभ थी.

3. मध्यकालीन कृषि व्यवस्था –

मुख्य रूप से यह काल रजवाड़ों, विद्रोह, विदेशी आक्रमणों का काल माना गया है, परन्तु यहां भी जीविका के प्रमुख उपागम के रूप में कृषि प्रधान थी. इसका उल्लेख बहुत से ऐतिहासिक लेखों में मिलता है कि कृषि के आधार पर लगान आदि का भुगतान जनता द्वारा किया जाता था, जिससे सम्पूर्ण प्रशासन सुचारू रूप से चला करता था. कौटिल्य अर्थशास्त्र में मौर्य राजाओं के काल में कृषि, कृषि उत्पादन आदि को बढ़ावा देने हेतु कृषि अधिकारी की नियुक्ति का वर्णन मिलता है. यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने भी लिखा है कि मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण को निश्चित करने व नदी और कुओं के निरीक्षण के लिए राजा के द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी.

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बाबरनामा के अनुसार, चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं शताब्दी में भारत की भूमि बहुत उपजाऊ थी तथा वर्षा भी अच्छी होती थी. सिंचाई के कृत्रिम साधनों के अन्तर्गत कुएँ, तालाब तथा नहरें आदि सिंचाई के कृत्रिम साधन के मुख्य स्त्रोत हुआ करते थे तथा कृषकों को सिंचाई के कृत्रिम साधनों की जानकारी होने के कारण उत्पादन भी बेहतर होता था.

 4. स्वतंत्रता पूर्व कृषि व्यवस्था –

स्वतंत्रता पूर्व भारत के अंतर्गत कृषि पर सबसे अधिक दुष्प्रभाव पड़ा, इस काल के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था शोषित होकर अंग्रेजी स्वार्थवाद का शिकार बनकर रह गयी थी और इसका परिणाम सभी क्षेत्रों में देखने को मिला. अंग्रेजी शासनकाल के दौरान ज़मींदारी प्रथा का आरम्भ हुआ, जिसने किसानों को ऋण के बोझ तले दबा दिया. साथ ही देश में कृषि से हुए उत्पादन का अर्थ यूरोप भेजे जाने वाले कच्चे माल से लिया जाने लगा और जबरन उसी प्रकार की फसलों की उपज करवाई गयी, जिससे यूरोप की औद्योगिक क्रांति को लाभ हो सके. वस्तुतः यह भारतीय कृषि क्षेत्र के शोषण का समयकाल था, जिसके परिणामस्वरूप कृषि की हालत बदतर हो गयी.

5. स्वतंत्र भारत एवं कृषि व्यवस्था –

स्वतन्त्रता के पश्चात कृषि को देश की आत्मा के रूप में स्वीकारते हुए देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु ने स्पष्ट किया था कि 'सब कुछ इन्तजार कर सकता है, परन्तु कृषि नहीं.’ खेती को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हुए सरकार ने वर्ष 1960-61 में भूमि सुधार कार्यक्रम का सूत्रपात किया, जिससे किसानों को भूमि पर मालिकाना हक प्राप्त हुआ. इसी प्रकार सरकार ने भू-जोतों की अधिकतम सीमा तथा चकबन्दी जैसे कार्यक्रमों को प्राथमिकता प्रदान की जिससे कृषक वर्ग को लाभान्वित किया जा सके.

कृषि विकास में वित्त की भूमिका को दृष्टिगत करते हुए सरकार ने किसानों को उचित ब्याज दरों पर, सही समय पर ऋण उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत साख व्यवस्था को प्राथमिकता प्रदान की. इसके लिए सहकारी ऋण व्यवस्था, बैंकों के राष्ट्रीयकरण, नाबार्ड व क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना जैसे प्रभावी कदम उठाए गए. इसके फलस्वरूप वर्ष 1950-51 में कृषि साख में जो संस्थागत साख का योगदान मात्र 3.1 प्रतिशत था, वह वर्तमान में बढ़कर 55 प्रतिशत से अधिक हो गया है.

प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-55) के अंतर्गत कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने एवं ग्रामीण जीवन स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयास किया गया. दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान (1956-60) सघन कृषि जिला कार्यक्रमों के आधार पर कृषि विकास का उद्देश्य रखा गया. तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961- 65) के द्वारा मानवीय एवं स्थानीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग से कृषि विकास को बढ़ावा दिया गया.

6. हरित क्रांति का आगमन : कृषि की उन्नति या अवनति

वर्ष 1966-67 के दौर में नई कृषि नीतियों का निर्माण करने के क्रम में हरित क्रांति का प्रारंभ हुआ. इसके अंतर्गत वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाकर त्वरित उत्पादन क्षमता का विकास करना सरकार की मूल योजनाओं में से एक था. इस नई नीति के द्वारा हाईब्रिड बीजों के प्रयोग, सिंचाई सुविधाओं के लिए भू-गर्भीय जल के स्त्रोत, फसल सुरक्षा के नवीनतम उपाय, रासायनिक उर्वरकों की बहुलता, आधुनिक कृषि यंत्र, सस्ते बैंक ऋण आदि पर जोर दिया गया. हरित क्रांति के कारण वर्ष 1971 के बाद से कृषि उत्पादन क्षमता में बढ़ोतरी हुई, तुलनात्मक विवरण से ज्ञात होता है कि कृषि के उत्पादन क्षेत्र में जहां बढ़ोतरी हुई, वहीं भूमि की उत्पादन क्षमता में ह्रास भी देखा गया.

जीरो बजट प्राकृतिक कृषि को स्थापित करने वाले कृषि विशेषज्ञ सुभाष पालेकर जी के अनुसार, “क्रांति का अभिप्राय सृजन से होता है, अहिंसक सृजन, परन्तु हरित क्रांति कोई सृजन अथवा निर्माण कार्य नहीं है. अपितु हरित क्रांति हिंसा की परिवर्तन प्रक्रिया है. यह कोई निर्माण प्रक्रिया नहीं है, इसका मतलब है जहरीले रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों, पक्षियों, मिट्टी, पानी, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के विनाश के माध्यम से लाखों सूक्ष्म जीवों का विनाश.”  

उपजाऊ भूमि जो प्रति एकड़ गन्ना के एक टन या चालीस क्विंटल गेहूं प्रति एकड़ का उत्पादन कर रही थी, इतनी बंजर हो गई थी कि इस भूमि पर भी घास नहीं उगाया जा सकता है और यह भारत में हजारों एकड़ भूमि के साथ होता है. उत्पादन में दस टन गन्ना और पांच क्विंटल गेहूं की कमी आई थी.

हरित क्रांति से मुख्य तौर पर जो विनाश दृष्टिगोचर हुआ, वह इस प्रकार है –

 1. मानव स्वास्थ्य का ह्रास :

विगत पचास वर्षों में हाई बीपी, कैंसर, मधुमेह, थाइरोइड और हृदय रोग आदि अत्याधिक बढ़ चुके हैं, जबकि पहले यह सब बीमारियां न के बराबर हुआ करती थी. आज ये सभी बीमारियां घातक रूप से बढ़ रही हैं जिससे सम्पूर्ण मानव जीवन ही विनाश की कगार पर खड़ा हैं. इसके मूल में प्रमुख कारण खतरनाक, जहरीली और विनाशकारी हरित क्रांति है. हरित क्रांति का उत्पादन केवल विनाश है - मिट्टी, पानी, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य का विनाश. रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से मानव स्वास्थ्य आज बुरी तरह प्रभावित हुआ है, जिनका चलन हरित क्रांति के बाद से ही बढ़ा है.

2. ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विनाश :

शहरी उद्योगों की शोषक प्रणाली को स्थापित करने के ध्येय को लेकर तैयार की गयी हरित क्रांति के जरिये किसानों को आधुनिक बीज, खाद, उपकरणों आदि की खरीद के लिए प्रतिबद्ध किया गया. जिसके लिए किसान को शहरों में आना पड़ा और जब भी किसान खरीद के लिए शहरों में जाता तो गांव से शहरों में और फिर आखिरकार शोषक प्रणाली के अंतर्गत उसका धन निरर्थक चला जाता है. हरित क्रांति का परोक्ष उद्देश्य किसानों या ग्रामीणों को शहरों से हर वस्तु खरीदने के लिए प्रतिबद्ध करना था. इस शोषक प्रणाली की विचारधारा थी कि गांव में कोई वस्तु नहीं बनाई जानी चाहिए एवं गांव में स्थापित उद्योग बंद होकर सभी ग्रामीणों को खरीद के लिए शहरों में ही आना चाहिए. जिसमें वे सफल भी रहे तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी, आज किसानों की बदहाली का यह एक प्रमुख कारक है.

3. प्राचीन औषधीय परंपराओं का विनाश :

हरित क्रांति का एक अन्य उद्देश्य हमारे प्राचीन औषधीय प्रथाओं को नष्ट करना था, ताकि किसानों या ग्रामीणों को चिकित्सा उपचार के लिए शहरों में जाना पड़े. ईश्वर ने इंसान को प्रतिरोध शक्ति के रूप में एक अद्भुत उपहार दिया था, जो बीमारियों से शरीर की रक्षा करती है. हमारी आंतों में कुछ उपयोगी बैक्टीरिया हैं, जो रोगों के खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति विकसित करते हैं, लेकिन इन जीवाणुओं को एंटीबायोटिक दवाओं के माध्यम से नष्ट कर दिया जाता है. इस शोषक प्रणाली ने हमें आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के माध्यम से एलोपैथिक प्रणाली पर बल दिया.

यह एंटीबायोटिक्स के माध्यम से प्रतिरोधी शक्ति को नष्ट करने के लिए एक अच्छी तरह से योजनाबद्ध घोटाला था, ताकि हमारी प्रतिरोधी शक्ति समाप्त कर दी जाएगी और बीमारीयां हमें प्रभावित करेंगी. उन्होंने किसानों को इन आधुनिक महंगी दवाओं को खरीदने के लिए प्रतिबद्ध किया ताकि पैसा शहरों की ओर बढ़े. उन्होंने हमारी प्राचीन औषधीय प्रथाओं जैसे आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी थेरेपी आदि को नष्ट कर दिया. इन एलोपैथिक मेडिकल कॉलेज की फीस इतनी अधिक है कि ग्रामों का कोई भी छात्र इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता है और इसलिए गांवों में कोई चिकित्सा सहायता नहीं होगी, यहां तक कि ग्रामीणों को मेडिकल सुविधा के लिए शहरों में जाना होगा. इसलिए ग्रामों का पैसा शहरों की ओर प्रवाहित होता जाएगा.

4. सुनियोजित शोषक प्रणाली :

हरित क्रांति के माध्यम से एक शोषक प्रणाली की स्थापना की गयी, जिसके अंतर्गत किसानों को इन हाइब्रिड बीजों को खरीदना होगा जो रासायनिक उर्वरकों को लागू करने के बाद ही अधिक उपज देंगे. इसलिए किसानों को हाइब्रिड बीजों और रासायनिक उर्वरकों दोनों को ही खरीदना पड़ता है, क्योंकि इन हाइब्रिड बीजों को इस तरह से विकसित किया जाता है कि उनके पास कीड़े और बीमारियों के खिलाफ कोई प्रतिरोध शक्ति नहीं है. रासायनिक उर्वरकों को विकसित किया गया ताकि वे मिट्टी की उर्वरकता को नष्ट कर सकें और भूमि बंजर बनकर अपनी प्रतिरोध शक्ति को खो दें. जैसे ही भूमि बंजर हो जाती है, इसमें उगाई जाने वाली फसलें रोग से प्रभावित होंगी. इस स्थिति में किसानों को बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए जहरीले कीटनाशकों और कवकों को खरीदना पड़ता है. ये रासायनिक उर्वरक मिट्टी को इतना कॉम्पैक्ट बना देते हैं कि किसान को खेती के लिए ट्रैक्टर का उपयोग करना होगा, क्योंकि लकड़ी का फावड़ा काम नहीं करेगा. इस प्रकार, गांवों से शहर में और अधिक पैसा आएगा.

5. किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा :

कृषि विश्वविद्यालयों ने किसानों को आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी के माध्यम से हरित क्रांति की इस भूलभुलैया में प्रवेश करने के लिए मजबूर किया, परन्तु उन्होंने इस भूलभुलैया से बाहर आने का कोई मार्ग नहीं दिखाया है. हरित क्रांति ने भूमि, जल, पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य को भी प्रदूषित कर दिया है तथा किसानों को विनाश और आत्महत्या की ओर विवश कर दिया. हरित क्रांति ने किसानों पर ऋण बढ़ाया, विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत सहकारी बैंक, कोआपरेटिव सोसाइटी इत्यादि के माध्यम से किसानों को ऋण के मोहपाश की ओर धकेल दिया. किसान को उनके उत्पादन के लिए सही समर्थन कीमत नहीं मिली. हरित क्रांति के नाम पर एक ऐसी प्रणाली की स्थापना की, जिसने किसानों को इस ऋण से बाहर निकलने में असमर्थ बनाया, जिसके चलते किसानों ने अपना आत्म सम्मान खो दिया और आखिरकार आत्महत्या कर ली. वर्तमान में हरित क्रांति का नतीजा लाखों में किसानों की आत्महत्या के मामले में दिख रहा है.

हमारी केंद्र सरकार द्वारा आत्महत्या को सीमित करने के नाम पर हजारों करोड़ का पैकेज दिया. हालांकि, यह पैकेज किसानों की आत्महत्या रोकने के स्थान पर आत्महत्या की ओर मजबूर कर रहा है. क्योंकि इस पैकेज ने आत्महत्या के पीछे असली कारण नहीं माना है. किसानों को तेजी से ऋण देना आत्महत्या का समाधान नहीं है, यह आत्महत्या की प्रवृति को सीमित नहीं करेगा उलटे इसे बढ़ाएगा. गांव से कोई भी युवा कृषि क्षेत्र की ओर रुख नहीं करेगा. वे रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ दौड़ेंगे, वे अपनी भूमि बड़ी कंपनियों को बेच देंगे तथा ये कंपनियां आधुनिक और मशीनीकृत कृषि प्रथाओं के माध्यम से आत्मनिर्भर कृषि प्रणाली को नष्ट कर देगी. यदि हम आत्महत्या को प्रतिबंधित करना चाहते हैं तो हमें किसानों को ऐसी तकनीक देनी होगी, जिसमें किसानों को ऋण लेने की कोई आवश्यकता नहीं होगी. हरित क्रांति का परिणाम यानि रासायनिक खेती और इस कार्बनिक खेती ने किसानों को शहरों से वस्तुएं खरीदने पर मजबूर कर दिया, प्रकृति की आत्मनिर्भरता, आत्म विकास प्रणाली को नष्ट करके अंततः आत्महत्या की ओर आमुख कर दिया. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जुटाए गये आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014-2016 तक की समयावधि में लगभग 36 हजार किसानों और कृषि श्रमिकों ने ऋण, दिवालियापन और अन्य कारणों से आत्महत्या की, जिससे स्पष्ट होता है कि भारत में किसानों की वास्तविक स्थिति दूभर है. 

सम्पादकीय नोट -

सिन्धु पूर्व की खेती किसानी खतरे में है, भारत के किसान जिस गति से खेती से विमुख हो रहे हैं, वह एक संस्कृति के अमूल चूल उलट पलट की शंख ध्वनि है, और भारत ही क्यों? क्या विश्व इस बदलाव से  संभल पाएगा? खेती, किसानी, कास्तकारी केवल जीविकापार्जन के साधन मात्र नहीं अपितु एक समग्र विचारधारा है, जिसने भारतीय समाज को एक इकाई की तरह बांध रखा है.  इस सोच में कोई भी बिखराव प्रत्यक्ष और परोक्ष बड़े बदलाव ला सकता है. हमारी संस्कृति, जीवन, जल, क्लाइमेट या मौसम, पेड़ पौधे, नदी, तालाब, अध्यात्म, रोज़मर्रा के जीने का तरीका, तीज त्यौहार, समाज का आत्मविश्वास, गौरव और संबल सब इससे जुड़ा हुआ है.

जय जवान, जय किसान इस नारे का सही मतलब क्या है, और भारत आज किस दोराहे पर खड़ा है, इसपर चर्चा ज़ारी रहेगी.

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